________________
५१
साधु-साध्वी को आचार्य आदि के निर्देशन में रहने का परिवर्जन
- यदि वह - मैं अवशेष अध्ययन पूरा कर लूंगा, ऐसा संकल्प कर उसे पूर्ण न कर सके तो उसे आचार्य या उपाध्याय पद देना नहीं कल्पता।
विवेचन - पिछले सूत्रों में उपाध्याय तथा आचार्य आदि को मनोनीत या नियुक्त करने के संबंध में जो चर्चा आई है, वह उत्सर्ग मार्ग से संबंधित है। इन दो सूत्रों में उस संबंध में जो वर्णन हुआ है, वह अपवाद मार्ग से संबंधित है।
यदि आचार्य या उपाध्याय का अकस्मात् स्वर्गवास हो जाए, तब तक वे उत्तराधिकार संबंधी निर्णय न कर सके हों तथा गण में कोई वैसा श्रमण, निर्ग्रन्थ दृष्टिगोचर न हो, जो आचार्य या उपाध्याय पद का दायित्व वहन करने में समर्थ हो। वैसी स्थिति में निरुद्ध पर्याय भिक्षु को, जो उसी दिन दीक्षित हुआ हो, आचार्य या उपाध्याय पद सौंपा जा सकता है। किन्तु वैसा भिक्षु किसी ऐसे कुल का होना चाहिए, जो अपनी धार्मिकता, शालीनता, प्रतिष्ठा, बहुजन सम्मानिता, गुणानुकूलता इत्यादि में उत्तम या श्रेष्ठ हो। ___ यहाँ कुल विशेष का कथन करने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति वैसे विख्यात, उच्च एवं मान्य कुलों से आते हैं, उनमें सहज ही दायित्व बोध का भाव होता है, उनमें वंश परंपरा से तथा आनुवंशिकतया अनुशासन, व्यवस्था, मर्यादा आदि का निर्वाह करने एवं कराने का संस्कार विद्यमान होता है। इसलिए उनसे आशा की जाती है कि वे अपने दायित्व का भलीभांति निर्वाह कर पाएंगे। किन्तु उन्हें आचार-कल्प का अध्ययन आवश्यक है। यदि वे पूरा करने का संकल्प कर उसे पूरा कर लेते हैं तो उन्हें पदासीन करना कल्प्य है।
साधु-साध्वी को आचार्य आदि के निर्देशन में रहने का परिवर्जन :
णिग्गंथस्स णं णवडहरतरुणस्स आयरियउवज्झाए वी( सुं)संभेजा, णो से कप्पइ अणायरियउवज्झायस्स होत्तए, कप्पइ से पुव्वं आयरियं उहिसावेत्ता तओ पच्छा उवझायं, से किमाहु भंते! दुसंगहिए समणे णिग्गंथे, तंजहा - आयरिएणं उवज्झाएण य॥८०॥
णिग्गंथीए णं णवडहरतरुणीए आयरियउवज्झाए पर वि)वत्तिणी य वीसंभेजा, णो से कप्पइ अणायरियउवज्झाइयाए अपवत्तिणीए होत्तए, कप्पइ से पुव्वं आयरिचं उहिसावेत्ता तओ उवज्झायं तओ पच्छा पवत्तिणिं, से किमाहु भंते ! तिसंगहिया समणी णिग्गंथी, तंजहा-आयरिएणं उवज्झाएणं पवत्तिणीए य॥८१॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org