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५३.
साधु-साध्वी को आचार्य आदि के निर्देशन में रहने का परिवर्जन
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महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि साध्वियाँ, आचार्य और उपाध्याय की छत्र-छाया में रहने के साथ-साथ प्रवर्त्तिनी की निकटस्थता में रहती हैं, उनके सान्निध्य में रहती हैं।
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भाष्यकार ने नवदीक्षित आदि का विश्लेषण करते हुए उल्लेख किया है कि जिसके तीन वर्ष का दीक्षा - पर्याय होता है, उसे नवदीक्षित कहा जाता है।
चार वर्ष से लेकर सोलह वर्ष की आयु पर्यन्त व्यक्ति डहर बाल कहा जाता है। 'डहर' देशी शब्द है । लोक भाषा में यह बालक के लिए प्रयुक्त होता रहा है।
सोलह वर्ष की आयु के अनन्तर चालीस वर्ष की आयु पर्यन्त व्यक्ति तरुण कहा जाता है। व्यवहार सूत्र के उद्देशक ३ के ११-१२वें सूत्र के आधार पर कुछ लोगों का मानना है कि- " बिना आचार्य उपाध्याय से साधुओं को रहना नहीं कल्पता है।" किंतु ऐसा अर्थ करना संगत प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि उन सूत्रों में तो नव (तीन वर्ष से कम दीक्षा पर्याय वाले) डहर (१६ वर्ष से कम उम्र वाले) तथा तरुण (६० वर्ष से कम उम्र वाले) को आचार्य उपाध्याय के बिना रहना नहीं कल्पता है
(साधु के लिए
"तिवरिसो होड़ णवो, आसोलसगंतु डहरगं बैति । चत्ता सत्तरुण मज्झिमो, सेसओ थेरो ॥४८॥ साध्वियों के लिए -
"तिवरिसा होई णवा अठारसिया डहरिया होई ।
तरुणी खलु जा जुवइ, चउरो दसमा य पुव्वुत्ता ॥४९ ॥
व्यवहार भाष्य गाथा") उन्हें पहले आचार्य और बाद में उपाध्याय बनाना और साध्वियों को आचार्य उपाध्याय के बाद प्रवर्तिनी बनाना आवश्यक है। आगमकार तो नव, डहर, तरुण साधुओं वाली संप्रदाय के लिए ही आचार्य, उपाध्याय की आवश्यकता मानते हैं, सबके लिए नहीं । जो लोग इन सूत्रों के आधार से ही "बिना आचार्य रहना नहीं कल्पता है, एवं प्रायश्चित्त आता है" ऐसा मानते हैं। उन्हें स्वयं की मान्यतानुसार "बिना उपाध्याय एवं साध्वियों को बिना प्रवर्त्तिनी से रहना भी नहीं कल्पता है" ऐसा भी इन्हीं सूत्रों से मानना पड़ेगा। क्योंकि सूत्र में तो तीनों पदों के लिए समान रूप से उल्लेख हुआ है। एक (आचार्य) पद के लिए नयी कल्पना मानना और शेष (उपाध्याय, प्रवर्त्तिनी) पदों की तरफ दुर्लक्ष्य करना स्वयं की मान्यतानुसार इन सूत्रों के साथ न्याय नहीं है ।
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