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व्यवहार सूत्र - द्वितीय उद्देशक ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
६०. पारंचित भिक्षु को गृहस्थ का वेश धारण कराए बिना पुनः संयम में 'उपस्थापित करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता।
६१. पारंचित भिक्षु को गृहस्थ का वेश धारण कराके पुनः संयम में उपस्थापित करना गणावच्छेदक को कल्पता है।
६२. गण की प्रतिष्ठा या हित की संभावना देखते हुए अनवस्थाप्य या पारंचित भिक्षु को परिस्थितिवश गृहस्थ का वेश धारण कराए बिना या करवा कर भी गणावच्छेदक को पुनः उन्हें संयम में उपस्थापित करना कल्पता है। .
विवेचन - जैन शास्त्रों के विधानानुसार अनवस्थाप्य एवं पारंचित भिक्षु को कम से कम छह मास का तथा अधिक से अधिक बारह वर्ष का विशिष्ट तप रूप प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रायश्चित्त रूप तप के परिपूर्ण हो जाने पर उसे एक बार गृही वेश स्वीकार करवा कर फिर संयम में उपस्थापित किया जाता है - छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार कराया जाता है। यह सामान्य विधि है।
जहाँ गण की प्रतिष्ठा, महिमा आदि की वृद्धि की संभावना हो, गण का विशेष हित, उन्नयन साधित होता हों तो तप समाप्ति के पश्चात् गृहस्थ का वेश धारण कराये बिना भी भिक्षु को छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार कराया जा सकता है।
. . अकृत्यसेवन : आक्षेप : निर्णयविधि .. दो साहम्मिया एगओ विहरंति, एगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा - अहं णं भंते! अमुएणं साहुणा सद्धिं इमम्मि कारणम्मि पडिसेवी, से य पुच्छियव्वे किं पडिसेवी? से य वएज्जा-पडिसेवी परिहारपत्ते, से य वएज्जा - णो पडिसेवी, णो परिहारपत्ते, जं से पमाणं वयइ से पमाणाओ घेयव्वे, से किमाहु भंते? सच्चपइण्णा ववहारा ॥६३॥
कठिन शब्दार्थ - भंते - हे भगवन्!, अमुएणं साहुणा सद्धिं - अमुक साधु के साथ, इमम्मि कारणम्मि - इस कारण से, पडिसेवी - प्रतिसेवी - सेवन करने वाला, पुच्छियव्वे - पूछना चाहिए, परिहारपत्ते - परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र, जं - यदि, से - वह, पमाणं - प्रमाण - सबूत, वयइ - बोलता है - कहता है, पमाणाओ -
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