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__ अनवस्थाप्य एवं पारंचित भिक्षु का संयमोपस्थापन
यही कारण है कि इन सूत्रों में रोगग्रस्त भिक्षुओं की सेवा करने का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है। सेवा का कार्य बहुत कठिन है। सेवा करने वाले में धैर्य, स्थिरता और त्याग का भाव होना चाहिए। सेवा को वह पवित्र कार्य मानता हुआ उसमें अभिरुचिशील रहे। इसीलिए इन सूत्रों में अग्लानभाव से सेवा करने का जो कथन किया गया है, उसका यही आशय है। बीमार को देखकर मन में घृणा नहीं होनी चाहिए। मन में यदि घृणा या ग्लानि उत्पन्न हो जाती है तो सेवा हो नहीं सकती। इसीलिए कहा गया है -
'सेवाधर्मो परमगहनो योगिनामप्यगम्यः' - सेवा का कार्य बड़ा गहन है। योगियों के लिए भी यह अगम्य है। अर्थात् योग साधना सरल है, भलीभाँति सेवा करना तो उससे भी कहीं कठिन है।
जैन धर्म में वैयावृत्य का बहुत महत्त्व है। निर्जरा के बारह भेदों में नौवां वैयावृत्य है। शुद्ध भावपूर्वक, रुचिपूर्वक वैयावृत्य करने से कर्मों की निर्जरा होती है। .... .
अनवस्थाप्य एवं पारंचित भिक्षु का संयमोपस्थापन .. अणवठ्ठप्पं भिक्खं अगिहिभूयं णो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥१८॥ अणवठ्ठप्पं भिक्खुं गिहिभूयं णो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥५९॥ पारंचियं भिक्खं अगिहिभूयं णो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥६०॥ पारंचियं भिक्खं गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥६१॥
अणवठ्ठप्पं भिक्खं पारंचियं वा भिक्खं अगिहिभूयं वा गिहिभूयं वा कप्पड़ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए, जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया॥६२॥ ___ कठिन शब्दार्थ - अगिहिभूयं - अगृहीभूत - गृही या गृहस्थ का वेश धारण कराए बिना, उवट्ठावेत्तए - संयम में उपस्थापित करना, गिहिभूयं - गृहीभूत - गृही या गृहस्थ का वेश, पत्तियं - प्रत्यय - प्रतिष्ठा या हित, सिया - स्यात् - हो। __ भावार्थ - ५८. अनवस्थाप्य भिक्षु को गृहस्थ का वेश धारण कराए बिना पुनः संयम में उपस्थापित करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता।।
५९. अनवस्थाप्य भिक्षु को गृहस्थ का वेश धारण कराके पुनः संयम में उपस्थापित करना गणावच्छेदक को कल्पता है।
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