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रुग्ण भिक्षुओं को गण से बहिर्गत करने का निषेध
४८. पारंचित - दशम प्रायश्चित्त संवाहक भिक्षु यदि रोगग्रस्त हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से विप्रमुक्त न हो जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
४९. क्षिप्तचित्त भिक्षु यदि बीमारी से पीड़ित हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता, किन्तु जब तक वह रोग से पूरी तरह छूट न जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा-परिचर्या करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे बहुत कम प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। .
५०. दीप्तचित्त भिक्षु यदि रोगग्रस्त हो जाए, तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से विप्रमुक्त न हो जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
५१. यक्षाविष्ट भिक्षु यदि बीमारी से पीड़ित हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से पूरी तरह छूट न जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा-परिचर्या करनी चाहिए यावत् पश्चात् उसे बहुत कम प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। . ५२.. उन्मादप्राप्त भिक्षु यदि रोगग्रस्त हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से विप्रमुक्त न हो जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
५३. उपसर्गप्राप्त भिक्षु यदि बीमारी से पीड़ित हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से पूरी तरह छूट न जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा-परिचर्या करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे बहुत कम प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
५४, साधिकरण - कलहयुक्त भिक्षु यदि रोगग्रस्त हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण में पथक करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से विप्रमुक्त न हो जाए, तब
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