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व्यवहार सूत्र
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प्रथम उद्देश
सम्यक् ज्ञान एवं भाव युक्त गृहस्थ, बहिया - बाहर,
अधिकांशतः व्यापारियों
में आस्था युक्त, चेइयाई - चैत्य गामस्स - गाँव के, नगरस्स नगर के, णिगमस्स - निगम के के निवास स्थान के - व्यापार केन्द्र के, रायहाणीए - राजधानी के, खेडस्स - मिट्टी के परकोटे से घिरी हुई बस्ती के, कब्बडस्स - कर्बट के छोटे शहर या कस्बों के, मडंबस्सदूर तक (चारों तरफ ढाई-ढाई कोश तक) गाँव रहित बस्ती के, पट्टणस्स पत्तन के जहाँ सभी प्रकार की सामग्रियाँ प्राप्य हों, वैसे नगर के, दोणमुहस्स - द्रोणमुख के जलमार्ग एवं स्थल मार्ग युक्त शहर के, आसमस्स आश्रम के - तापसों के आवास स्थान के, संवाहस्स - संबाध के खेती करने वाले कृषक दूसरी जगह खेती करके पर्वत आदि विषम स्थानों पर रहते हो ऐसे स्थान के, संणिवेसस्स - सन्निवेश के - सेना की छावनी के, पाईणाभिमुहे - पूर्व दिशा की ओर मुख किए हुए, उदीणाभिमुहे - उत्तर दिशा की ओर करतल परिगृहीत - हाथ जोड़े हुए, सिरसावत्तं - सिर पर घुमाते हुए, मत्थए - मस्तक पर, अंजलिं कट्टु - अंजलि करके, एवं इस प्रकार, वएज्जा - बोले, एवइया - इतने, अवराहा अपराध, एवइक्खुत्तो - इतनी बार किए, अहं - मैंने, अवरद्धो - अपराध युक्त, अरहंताणं - अर्हन्त भगवन्तों के, सिद्धाणं - सिद्ध भगवन्तों के, अंतिए - समीप - समक्ष ।
मुख किए हुए, करयलपरिग्गहियं
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भावार्थ ३४. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का दोष का प्रतिसेवन कर उसकी आलोचना करना चाहे तो वह जहाँ अपने आचार्य या उपाध्याय को देखे, उनके समक्ष उपस्थित होकर आलोचना करे, प्रतिक्रमण करे, निंदा करे, गर्हा करे, व्यावृत्ति करे - प्रतिनिवृत्ति करे, विशुद्धि करे, अकरणीय नहीं करने योग्य दोष से अपने को ऊँचा उठायें एवं यथायोग्य तपः क्रम, प्रायश्चित्त स्वीकार करे ।
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३५. यदि अपने आचार्य या उपाध्याय को न देखे, वह प्राप्त न हो तो जहाँ वह अपने बहुश्रुत, बहु आगमवेत्ता, सांभोगिक, साधर्मिक भिक्षु को देखे तो उसके समीप आलोचना करे यावत् तंपःक्रम, प्रायश्चित्त स्वीकार करे ।
३६. यदि बहुश्रुत, बहुआगमवेत्ता, सांभोगिक, साधर्मिक भिक्षु प्राप्त न हो तो जहाँ वह बहुश्रुत, बहुआगमवेत्ता, अन्य सांभोगिक, साधर्मिक भिक्षु को देखे, उसके समीप आलोचना करे यावत् तपःक्रम, प्रायश्चित्त स्वीकार करे ।
३७ - १. यदि बहुश्रुत, बहुआगमेवेत्ता, अन्य सांभोगिक, साधर्मिक भिक्षु प्राप्त न हो तो
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