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विहरणशील साधर्मिकों के लिएँ परिहार-तप का विधान ********************************************************* एक भिक्षु अकृत्यस्थान - दोष का प्रतिसेवन कर, उसकी आलोचना करे तो सहवर्ती दूसरा भिक्षु उसे प्रायश्चित्त तप में स्थापित कर उसकी वैयावृत्य - सेवा-परिचर्या करे।
४१. दो साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरण करते हों तथा दोनों ही भिक्षु यदि किसी अकृत्यस्थान - दोष का प्रतिसेवन कर उसकी आलोचना करना चाहे तो दोनों में से किसी एक को कल्पाक - अनुशासक या अग्रणी के रूप में स्थापित करके स्वयं प्रायश्चित्त तप में सन्निविष्ट - संलग्न रहे। उसके पश्चात् वह कल्पाक भी प्रायश्चित्त रूप तप स्वीकार करे - . वहन करे।
४२. बहुत से साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरण कर रहे हों तथा उनमें से यदि कोई एक भिक्षु अकृत्यस्थान - दोष का प्रतिसेवन कर उसकी आलोचना करे तो (उन भिक्षुओं में जो मुख्य हो, वह) उसे प्रायश्चित्त तप में स्थापित करे, संलग्न करे तथा अन्य उसकी सेवा - परिचर्या करें।
४३. बहुत से साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरण कर रहे हों और यदि सभी भिक्षु किसी अकृत्यस्थान - दोष का प्रतिसेवन कर उसकी आलोचना करते हों तो वे अपने में से किसी एक को अग्रणी स्थापित कर अन्य सब परिहार-तप में सन्निविष्ट हो जाएँ - लग जाएँ। उसके पश्चात् वह अग्रणी भी परिहार रूप तप का संवहन करे।
४४. परिहारकल्प में - तदरूप प्रायश्चित्त तप में संलग्न भिक्षु रुग्ण होने पर यदि किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर उसकी आलोचना करे - (उस स्थिति में)
- यदि वह परिहार-तप करने में समर्थ - सक्षम हो तो (आचार्य या प्रमुख स्थविर) उसे परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त में स्थापित करें तथा उसकी आवश्यक सेवा-परिचर्या करे। .
४५. यदि वह परिहार-तप करने में समर्थ न हो तो (आचार्य या प्रमुख स्थविर) उसकी वैयावृत्य करवाएं - उसके वैयावृत्य का दायित्व किसी अनुपारिहारिक भिक्षु को सौंपें।
यदि वह पारिहारिक भिक्षु समर्थ होते हुए भी अनुपारिहारिक भिक्षु द्वारा की जाती सेवा को स्वीकार करे तो उसका भी सारा प्रायश्चित्त वह (आचार्य या प्रमुख स्थविर) पूर्व प्रायश्चित्त में आरोपित करे।
विवेचन - प्रथम उद्देशक के अन्त में परिहार-तप आचार्य आदि के साक्ष्य में किए जाने का विवेचन हुआ है। यहाँ साधर्मिक भिक्षु, जो पृथक् विहरणशील हो, उन द्वारा परिहार-तप
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