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व्यवहार सूत्र - द्वितीय उद्देशक *aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa* किए जाने के संबंध में मार्गदर्शन दिया गया है। परिहार-तप अपने साधर्मिक साधु के निर्देशन या देखरेख में हो, यह अपेक्षित है। पारिहारिक भिक्षु के वैयावृत्य की व्यवस्था भी आवश्यक है। इसीलिए यहाँ इस संबंध में विस्तार से स्पष्टीकरण किया गया है। ___दो या दो से अधिक भिक्षु विहरणशील हों, उनमें से किसी एक द्वारा या सभी द्वारा अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो जाने पर परिहार-तप संवहन और वैयावृत्य की व्यवस्था किस प्रकार रहे, इन सूत्रों में इसका विशद निरूपण है।
- यहाँ जो वर्णित हुआ है, उसमें एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है। रुग्ण साधु के लिए, जो परिहार-तप को वहन करने में सक्षम न हो, उसकी अनुकूलता की दृष्टि से वैयावृत्य की व्यवस्था का विधान है। किन्तु सक्षम होते हुए भी जो वैयावृत्य को स्वीकार करे, आनुपारिहारिक साधु से यदि सेवा लेवे तो यह दोषयुक्त है। उसका और प्रायश्चित्त आता है, जो उसके परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त में आरोपित - योजित कर दिया जाता है।
पारिहारिक (प्रायश्चित्त वहन करने वाला) यदि सक्षम हो, तब तो अपना काम उसे ही करना चाहिए एवं वस्त्र, पात्र आदि भी अलग ही रखने चाहिए। विद्यमान परिस्थिति से उसे आहार आदि लाकर दिये जाने की परम्परा है। स्वयं सक्षम नहीं होने पर अनुपारिहारिक (सेवा करने वाले) के द्वारा उसकी हर वैयावृत्य की जाती है।
इसका आशय यह है कि तपःसाधना में दैहिक अनुकूलता की दृष्टि से भिक्षु में जरा भी अन्यथा भाव न आए - आसक्ति उत्पन्न न हो, क्योंकि संयम-साधना का पथ तो शुद्ध, निर्मल और सर्वथा वंचना रहित है।
रुग्ण भिक्षुओं को गण से बहिर्गत करने का निषेध परिहारकप्पट्ठियं भिक्खू गिलायमाणं णो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स णिज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिजं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा. तस्स अहालहुसए णामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया॥४६॥ .
अणवट्ठप्पं भिक्खं गिलायमाणं णो कप्पड़ तस्स गणावच्छेइयस्स णिज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए णामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया॥४७॥
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