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.. बृहत्कल्प सूत्र - द्वितीय उद्देशक ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
सौवीर उस मदिरा को कहा गया है, जो गुड़, रांगजड़ (झाड़ी की जड़) आदि से तैयार होती है।
मदिरायुक्त स्थान में रहने से कदाचन मन में तद्विषयक कुत्सित भाव जाग्रत हो सकता है। अत एव वहाँ रहना संयम की सुरक्षा की दृष्टि से प्रतिषिद्ध है। साथ ही साथ परंपरया यह भी स्वीकृत है - यदि गीतार्थ मुनि हों तो उनकी सन्निधि में इतर साधु रह सकते हैं। किन्तु वह प्रवास भी एक या दो दिन का ही हो सकता है। क्योंकि यह भी आपवादिक स्थिति है।
जलयुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदगवियडकुम्भे वा उसिणोदगवियडकुम्भे वा उवणिक्खित्ते सिया, णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे णो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, णो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥५॥
कठिन शब्दार्थ - सिया - स्यात्-हो, उवणिक्खित्ते - रखा हुआ हो।
भावार्थ - ५. उपाश्रय के प्रांगण में शीतल जल से भरा हुआ या उष्ण जल से भरा हुआ घट रखा हो तो साधुओं और साध्वियों को वहाँ क्षण भर भी रहना नहीं कल्पता।
बाहर गवेषणा करने पर भी (उचित) उपाश्रय न मिले तो उन्हें वहाँ (उपर्युक्त उपाश्रय में) एक या दो रात्रिक प्रवास करना कल्पता है। किन्तु एक रात या दो रात से अधिक रहना नहीं कल्पता। यदि वे एक रात या दो रात से अधिक वहाँ प्रवास करते हों तो उन्हें दीक्षा छेद या तपरूप प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - "शीतोदकविकृतकुंभ" और "उष्णोदकविकृतकुंभ" इन दोनों पदों में प्रयुक्त 'वियड' शब्द 'विकृत' के अर्थ में है।
"विकारेण युक्तं विकृतम्" - विकार या परिवर्तन विकारयुक्त या परिवर्तन सहित के अर्थ में है। यहाँ परिवर्तन का आशय जल को उबालकर या किसी क्षार आदि पदार्थ को डालकर अचित्त किए जाने से है।
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