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श्रुतग्रहण हेतु अन्य गण में जाने का विधि-निषेध
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२. औद्देशिक कल्प - साधर्मिक या सांभोगिक साधुओं के उद्देश्य से बनाए गए आहार को ग्रहण न करने का विधान।
३. शय्यातरपिंडकल्प - जिस घर में भिक्षु प्रवास करे उसके यहां से आहार ग्रहण न करना।
४. राजपिंड कल्प - राज तिलक धारी (मूर्धाभिषिक्त) राजा से आहार आदि लेने का निषेध।
५. कृतिकर्म कल्प - रत्नाधिक के प्रति विनयपूर्वक वंदन व्यवहार करना। . .
६. व्रत कल्प - चातुर्याम धर्म या पंचमहाव्रतों का पालन करना। ___. ज्येष कल्प - पूर्व महाव्रतारोपित - पहले बड़ी दीक्षा जिसकी हुई हो, ऐसे दीक्षाज्येष्ठ के प्रति वंदन व्यवहार करना।
6. प्रतिक्रमण कल्प - नित्य-नैमित्तिक रूप में दैवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण करना।
९. मास कल्प - चातुर्मास के अलावा विचरण करते हुए किसी एक स्थान पर एक मास (२९ रात्रि) से अधिक नहीं ठहरना तथा पुनः दो मास तक लौटकर न आना। इसी प्रकार साध्वियों के लिए अधिकतम दो मास (५९ रात्रि) का कल्प होता है। .
90. चातुर्मास कल्प • चातुर्मास में चार मास तक एक स्थान पर प्रवास करना एवं तदनंतर आठ मास तक (अगले चातुर्मास आ जाने तक) पुनः वहाँ आकर नहीं रहना। इस प्रकार कुल बारह मास (८ मास + ४ मास दूसरे ग्रामादि में चातुर्मास के) तक पुनः पूर्व चातुर्मास के स्थान पर आना अकल्पनीय कहा है।
श्रुतग्रहण हेतु अन्य गण में जाने का विधि-निषेध भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवझायं वा पवत्तिं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए ते य से णो वियरेज्जा, एवं से णो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥२०॥
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