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बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
यदि वहाँ कोई सागारिक गृहस्थ का अचित्त उपकरण वहन काष्ठ इत्यादि प्राप्त हो जाए तो उसे प्रातिहारिक रूप में ग्रहण कर उस भिक्षु के शरीर को (उसकी सहायता से) एकांत, स्थंडिल एवं अचित्त भूमि पर ले जाकर परठ देना चाहिए तथा उस वहन काष्ठ को यथास्थान पूर्ववत् रख देना चाहिए ।
विवेचन - यद्यपि किसी साधु का देहावसान हो जाने के अनन्तर गण के अन्य साधुओं का उससे संबंध विच्छेद हो जाता है क्योंकि देह जड़ है। तब तक ही उसका सार्थक्य है जब तक वह प्राण या आत्मा से युक्त हो । साधु को तो अन्ततः देह से मुक्त हो जाना अभीष्ट है । इसलिए तात्त्विक दृष्टि से देह मात्र का कोई विशेष महत्त्व नहीं है । किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से, क्योंकि वह देह वैसे व्यक्ति की है, जिसका जीवनभर गणस्थित भिक्षुओं के साथ साहचर्य रहा। अतः (व्यावहारिक दृष्टि से) इस सूत्र में ऐसी करणीयता का उल्लेख है, जो सावद्य नहीं है। यदि जहाँ साधु रुके हुए हों, वहाँ समुचित स्थंडिल, अचित्त भूमि प्राप्त न हो तो मृत साधु की देह को प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ से कोई वाहन याचित कर अन्यत्र स्थंडिल भूमि में परिष्ठापित करे । परिष्ठापन के पश्चात् उस देह से साधुओं का कोई संबंध नहीं रहता । ऐहिक या लौकिक विधिक्रम के अनुसार उस स्थान के गृहस्थ अनुयायी इसका दाह संस्कार करते हैं।
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अन्य परिस्थापनीय वस्तुओं के परिस्थापन की भूमि पूर्व प्रतिलेखित होने से रात्रि में वे वस्तुएं उस भूमि में परठ दी जाती है। अशनादि ग्रहण के बाद अचानक आई हुई आंधी आदि प्राकृतिक विवशताओं से उसका सेवन नहीं कर पाए हों और इधर रात्रि हो गई हों, अशनादि परठने की योग्य स्थण्डिल भूमि प्रतिलेखित नहीं होने से आगम में रात्रि में रखकर दूसरे दिन उन्हें परठने के विधि बताई है। वैसे ही आगमकालीन युग में साधु स्वयं साधर्मिक के देह को योग्य स्थण्डिल में रात्रि में काल कर जाने पर भी दिन में ही जाकर परिस्थापना किया करते थे । अन्तिम समय के मल-मूत्रादि से शरीर भरा हुआ न हो, इसीलिए मृत्यु के बाद शरीर एवं वस्त्रों का प्रतिलेखन करके योग्य वस्त्र पहना कर छोड़ने की विधि है । यह विधि भी रात्रि में संभव नहीं होने से दिन में छोड़ने की परम्परा रही है। पूरी जानकारी के अभाव में एवं भयादि कारणों से यदि कहीं पर रात्रि में छोड़ने की प्रवृत्ति हो गई हो तो उसे विवशता एवं आपवादिक स्थिति समझना चाहिए।
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