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१०६ । ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
__ बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
(अणुट्ठावणं वा) णिसीयावणं वा तुयट्टावणं वा, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणविगिंचणं वा विसोहणं वा करेत्तए, अह पुण एवं जाणेजा-छिण्णावाएसु पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा, एवं
से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥३१॥ . . . कठिन शब्दार्थ - परिहारकप्पट्ठियस्स - परिहारकल्पस्थित, विगिंचणं - परिष्ठापन, छिण्णावाएसु - गमनागमन रहित, आउरे - आतुर, झिंझिए - भूख आदि से पीड़ित, अणुप्पदाउं - अनुप्रदातुं - बार-बार देना।
भावार्थ - ३१. परिहारकल्पस्थित भिक्षु को, जिस दिन वह परिहार तप स्वीकार करता है (केवल) उस दिन आचार्य या उपाध्याय को एक घर से आहार दिलाना कल्पता है।
उसके अनंतर उसे अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि चतुर्विध आहार देना अथवा बारबार देना नहीं कल्पता (परन्तु) उसका (निम्नांकित प्रकार से) वैयावृत्य करना कल्पता है, यथा - - उस भिक्षु को (सहारा देकर) उठाना, बिठाना, त्वग्वर्तन करवाना - पसवाड़ा फिरवाना, मल, मूत्र, श्लेष्म, कफ, नासामल आदि का परिष्ठापन करना तथा इनसे लिप्त उपकरणों को विशोधित या स्वच्छ करना।
पुनश्च, यदि (आचार्य या उपाध्याय) यह जाने कि वह आतुर (ग्लान), बुभुक्षापीड़ित, पिपासित (प्यासा), तपस्वी दुर्बल एवं क्लान्त होने से गमनागमन मार्ग में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ेगा तो उसे अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि चतुर्विध आहार देना या बार-बार देना कल्पता है।
विवेचन - परिहार शब्द 'परि' उपसर्ग पूर्वक 'हृ' धातु के योग से बनता है। 'ह' धातु हरने, दूर करने या मिटाने के अर्थ में है। "यत्दोषान् परिहरति, तत्परिहार तपः" के अनुसार दोषनाशन के आशय में यह शब्द यहाँ प्रयुक्त है।
अर्थात् 'परिहार तप' ऐसा प्रायश्चित्त है, जिसमें उस साधु को कुछ समय के लिए अपने दोषों को अपगत करने हेतु संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इस तप में आचार्य किसी योग्य (वैयावृत्य निपुण) भिक्षु को परिहारकल्प स्थित भिक्षु की सेवा में नियुक्त करते हैं। यह प्रायश्चित्त मूलक तप उस भिक्षु से इसलिए कराया जाता है ताकि वह मौन रहते हुए, एकान्त
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