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व्यवहार सूत्र - प्रथम उद्देशक
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८. कपट सहित आलोचना करने का संकल्प कर कपट सहित आलोचना की हो।
इनमें से किसी भी प्रकार के भंग के अनुरूप आलोचना करने पर उसके समस्त स्वकृत दोष के प्रायश्चित्त को पूर्व प्रायश्चित्त में संहृत - सम्मिलित कर देना चाहिए। . ___ जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार-तप में स्थापित होकर फिर किसी प्रकार का दोष प्रतिसेवन करे तो उसका संपूर्ण प्रायश्चित्त पूर्व प्रायश्चित्त में आरोपित - सम्मिलित कर देना चाहिए।
विवेचन - इस सूत्र के अन्तर्गत 'परिहारट्ठाण' पद में प्रयुक्त परिहार शब्द 'परि' उपसर्ग तथा 'हृ' धातु के योग से बना है। 'परिहियते - परित्यज्यते गुरुसमीपे गत्वा यः, स परिहारः।' अर्थात् गुरु के समीप जाकर जिसका त्याग किया जाता है, उसे परिहार कहा जाता है। यों इसका अर्थ पाप या दोष है। परिहार-स्थान का तात्पर्य पाप के स्थान या हेतु हैं। इस सूत्र में पाप-स्थानों या दोषों का प्रतिसेवन हो जाने पर उनकी आलोचना, प्रायश्चित्त इत्यादि के संदर्भ में विभिन्न प्रकार से विस्तृत विवेचन किया गया है।
विविध भंगों के साथ किए गए इस विवेचन का अभिप्राय यह है कि भिक्षुः अपने द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में प्रतिसेवित दोषों का प्रायश्चित्त कर अपनी आत्मा को सदैव उज्ज्वल, निर्मल बनाए रखने की दिशा में प्रयत्नशील रहे। ___इस सूत्र में प्रतिसेवित पाप-स्थानों की माया-रहित और माया-सहित रूप में आलोचना करने का जो प्रसंग आया है, वह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बड़ी सूक्ष्मता लिए हुए है।
सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है कि दोषों के प्रतिसेवित होने पर एक साधु, जिसके जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष है, मायापूर्वक आलोचना क्यों करे? . यहाँ यह ज्ञातव्य है कि साधु साधना-पथ का पथिक है, साधक है, सिद्ध नहीं है। जब तक सिद्धत्व प्राप्त नहीं हो जाता, साधना परम सिद्धि तक नहीं पहुँच जाती, तब तक मानवीय दुर्बलतावश ऐसे प्रसंग बनते रहते हैं, जो साधना की उज्ज्वलता को यत्किंचित् धूमिल बनाते हैं। सांधक उस धूमिलता को आत्मबल द्वारा उज्ज्वलता में परिवर्तित करता जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में मायापूर्वक आलोचना करने का यही आशय है कि लोकैषणा, कीर्ति या प्रदर्शन का भाव जब साधक के मन में उभर आता है तब उस द्वारा की जाती दोष प्रतिसेवना की आलोचना भी उससे प्रभावित होती है। उसके साथ एषणामूलक माया आदि अवांछित तत्त्व मिलते जाते हैं। माया-रहित और माया-सहित आलोचना के प्रायश्चित्त का जो काल
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