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व्यवहार सूत्र - प्रथम उद्देशक
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जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार-तप में स्थापित होकर फिर किसी प्रकार का दोष प्रतिसेवन करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त पूर्व प्रायश्चित्त में आरोपित - सम्मिलित कर देना चाहिए। . १८. जो भिक्षु चार महीनों या चार महीनों से अधिक या पांच महीनों या पांच महीनों से अधिक अथवा इनमें से किसी एक परिहार स्थान की (एक बार) प्रतिसेवना कर आलोचना करे, वह माया पूर्वक आलोचना करता हुआ स्थापनीय - आसेवित - प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहार-तप में स्थापित करके उसकी समुचित वैयावृत्य करे। ___यदि वह परिहार-तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त पूर्व प्रायश्चित्त में इस प्रकार आरोहित - सम्मिलित कर देना चाहिए -
१. पूर्व प्रतिसेवित दोष की पूर्व आलोचना की हो। २. पूर्व प्रतिसेवित दोष की पश्चात् आलोचना की हो। ३. पश्चात् प्रतिसेवित दोष की पूर्व आलोचना की हो। ४. पश्चात् प्रतिसेवित दोष की पश्चात् आलोचना की हो। ५. कपट रहित आलोचना करने का संकल्प कर कपट रहित आलोचना की हो। ६. कपट रहित आलोचना करने का संकल्प कर कपट सहित आलोचना की हो। ७. कपट सहित आलोचना करने का संकल्प कर कपट रहित आलोचना की हो। ८. कपट सहित आलोचना करने का संकल्प कर कपट सहित आलोचना की हो।
इनमें से किसी भी प्रकार के भंग के अनुरूप आलोचना करने पर उसके समस्त स्वकृत दोष के प्रायश्चित्त को पूर्व प्रायश्चित्त में संहृत - सम्मिलित कर देना चाहिए। ... जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार-तप में स्थापित होकर फिर किसी प्रकार का दोष । प्रतिसेवन करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त पूर्व प्रायश्चित्त में आरोपित - सम्मिलित कर देना चाहिए।
१९. जो भिक्षु चार महीनों या चार महीनों से अधिक या पांच महीनों या पांच महीनों से अधिक अथवा इनमें से किसी एक परिहार स्थान की बहुत बार प्रतिसेवना कर आलोचना करे, वह निष्कपट भाव से आलोचना करता हुआ स्थापनीय - आसेवित - प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहार-तप में स्थापित करके उसकी समुचित वैयावृत्य करे। . यदि वह परिहार तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त पूर्व प्रायश्चित्त में इस प्रकार आरोहित - सम्मिलित कर देना चाहिए -
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