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व्यवहार सूत्र - प्रथम उद्देशक kakkakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
१०. जो भिक्षु चातुर्मासिक परिहार स्थान का बहुत बार प्रतिसेवन कर कपट रहित भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे चार महीनों का प्रायश्चित्त आता है और यदि वह कपट पूर्वक भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे पांच महीनों का प्रायश्चित्त आता है। - ११. जो भिक्षु पंचमासिक परिहार स्थान का बहुत बार प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे पांच महीनों का प्रायश्चित्त आता है तथा यदि वह कपट पूर्वक उसकी आलोचना करे तो उसे छह महीनों का प्रायश्चित्त आता है।
१२. उसके उपरान्त निष्कपट भाव से या कपट पूर्वक बहुत बार आलोचना कर पर की छह मासिक प्रायश्चित्त आता है।
१३. जो भिक्षु एक मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक या पंचमासिक परिहार स्थानों का अथवा इनमें से किसी एक का (एक बार) प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे एक मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक या पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक या छह मासिक प्रायश्चित्त आता है।
उसके उपरान्त निष्कंपट भाव से या कपट पूर्वक (एक बार) आलोचना करने पर वही छह मासिक प्रायश्चित्त आता है।
१४. जो भिक्षु एक मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक या पंचमासिक परिहार स्थानों का अथवा इनमें से किसी एक का बहुत बार प्रतिसेवन कर उसकी निष्कपट भाव से आलोचना करे तो उसे एक मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक या पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक या छह मासिक प्रायश्चित्त आता है।
उसके उपरान्त निष्कपट भाव से या कपट पूर्वक बहुत बार आलोचना करने पर वही छह मासिक प्रायश्चित्त आता है।
. १५. जो भिक्षु चार महीनों या चार महीनों से अधिक का या पांच महीनों या पांच महीनों से अधिक का अथवा इनमें से किसी एक परिहार स्थान की (एक बार) निश्छल भाव से आलोचना करे तो उसे चार महीनों या चार महीनों से अधिक का या पांच महीनों या पांच महीनों से अधिक का प्रायश्चित्त आता है तथा यदि वह कपट पूर्वक उसकी आलोचना करे तो उसे पांच महीनों या पांच महीनों से अधिक का या छह महीनों का प्रायश्चित्त आता है।
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