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५ कुटिलता सहित एवं कुटिलता रहित आलोचना : प्रायश्चित्त ***********************************************************
भावार्थ - १. जो भिक्षु मासिक - एक महीने के परिहार स्थान का (एक बार) प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से - अकुटिलता पूर्वक आलोचना करे तो उसे एक मास का प्रायश्चित्त आता है तथा यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे दो मास का प्रायश्चित्त आता है।
२. जो भिक्षु द्वैमासिक - दो महीनों के परिहार स्थान का (एक बार) प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त आता है और यदि वह माया या प्रवंचना पूर्वक आलोचना करे तो उसे तीन मास का प्रायश्चित्त आता है। ..
३. जो भिक्षु त्रैमासिक परिहार स्थान का (एक बार) प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे त्रैमासिक - तीन महीनों का प्रायश्चित्त आता है और यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे चातुर्मासिक - चार महीनों का प्रायश्चित्त आता है। ____४. जो भिक्षु चातुर्मासिक - चार महीनों के परिहार स्थान का (एक बार) प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उस चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता हैं एवं यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे पंचमासिक - पाँच महीनों का प्रायश्चित्त आता है।
५. जो भिक्षु पाँच महीनों के परिहार स्थान का (एक बार) प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे पाँच महीनों का प्रायश्चित्त आता है तथा यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे छह महीनों का प्रायश्चित्त आता है। .
६. उसके उपरान्त निष्कपट भाव से या कपट पूर्वक (एक बार) आलोचना करने पर वही छह मासिक प्रायश्चित्त आता है।
७. जो भिक्षु एक मासिक परिहार स्थान का बहुत बार प्रतिसेवन कर माया रहित भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे एक मासिक प्रायश्चित्त आता है और यदि वह माया सहित आलोचना करे तो उसे दो मास का प्रायश्चित्त आता है।
८. जो भिक्षु द्वैमासिक परिहार स्थान का बहुत बार प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे दो महीनों का प्रायश्चित्त आता है तथा यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे तीन महीनों का प्रायश्चित्त आता है।
९. जो भिक्षु त्रैमासिक परिहार स्थान का बहुत बार प्रतिसेवन कर निष्कपट भाव से उसकी आलोचना करे तो उसे तीन महीनों का प्रायश्चित्त आता है एवं यदि वह कपट पूर्वक आलोचना करे तो उसे चार महीनों का प्रायश्चित्त आता है।
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