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व्यवहार सूत्र
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प्रथम उद्देशक
पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द विहरणशील आदि का गण में पुनरागमन
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म पासत्थविहारं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि या इत्थ सेसे, पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएजा ॥ २८ ॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म अहाछंदविहारं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेजा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि या इत्थ सेसे, पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएजा ॥ २९ ॥
भिक्खू य गणाओ अवक्क्रम्म कुसीलविहारं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि या इत्थ सेसे, पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा ॥ ३० ॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओसण्णविहारं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि या इत्थ सेसे, पुणो आलोजा पुणो पक्किमेजा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएजा ॥ ३१ ॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म संसत्तविहारं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अस्थि या इत्थ सेसे, पुणो आलोएजा पुणो पक्किमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएजा ॥ ३२-१॥
कठिन शब्दार्थ- पासत्थविहारं ज्ञान - दर्शन - चारित्र की आराधना में पार्श्वस्थ पुरुषार्थ रहित आचरण, अहाछंदविहारं स्वच्छन्द मनमाने रूप में चलते रहने का उपक्रम, कुसीलविहारं कुत्सित शील युक्त - आगम विरुद्ध, समितिगुप्ति विहीन व्यवहार, ओसण्णविहारं - संयम का अनुसरण करने में अवसाद कष्टानुभव, संसत्तविहारं संयमविपरीताचरणशील जनों में आसक्तता, तदनुरूप व्यवहार ।
भावार्थ - २८. यदि भिक्षु गण से पृथक् होकर पार्श्वस्थ विहारचर्या अपना कर विचरण करे और फिर वह दुबारा गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे, यदि उसमें चारित्र कुछ भी शेष रहा हो तो वह पूर्वावस्था की संपूर्ण रूप से आलोचना, प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षा- छेद या तप विशेष का प्रायश्चित्त दें, उसे ( वह ) स्वीकार करे ।
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