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व्यवहार सूत्र - प्रथम उद्देशक
१६ *********************aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa*** अधिक भी रुक सकता है। कारण के दूर होने पर भी कोई चिकित्सक आदि योग्य व्यक्ति कहे तो एक-दो रात और रुक सकता है। वैसी स्थितियाँ न होने पर रुकना दोष युक्त है।
एकाकी विहरणशील का गण में पुनरागमन जे भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा ॥२५॥
गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएजा ॥२६॥
आयरियउवज्झाए य गणाओ अवकम्म एगल्लविहारपडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरेजा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएजा . पुणो पडिक्कमेजा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा॥२७॥
कठिन शब्दार्थ - गणाओ - गण से, अवक्कम्म - अवक्रान्त होकर - निकल कर, एगल्लविहारपडिमं - एकाकी - विहार प्रतिमा, उवसंपज्जित्ताणं - उपसंपन्न कर - स्वीकार कर या धारण कर, विहरेज्जा - विहरण करे, दोच्चं पि - दुबारा भी - पुनरपि, तमेव - उसी, विहरित्तए - रहना चाहे, पुणो - पुनः, पडिक्कमेज्जा - प्रतिक्रमण करे, छेयपरिहारस्सदीक्षा-छेद या परिहार-तप का, उवट्ठाएज्जा - उपस्थापित हो - स्वीकार करे, गणावच्छेइएगंणावच्छेदक, एवं - इसी प्रकार, आयरियउवज्झाए - आचार्य, उपाध्याय।
भावार्थ - २५. यदि कोई भिक्षु गण से पृथक् होकर एकाकी विहारचर्या स्वीकार कर विचरणशील रहे और बाद में वह उसी गण में पुनः (वापस) सम्मिलित होकर रहना चाहे तो वह पूर्वावस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षा-छेद या · तप विशेष का जो प्रायश्चित्त दे तो उसे वह अंगीकार करे।
२६. यदि कोई गणावच्छेदक गण से पृथक् होकर एकाकी विहारचर्या स्वीकार कर विचरणशील रहे और बाद में वह पुनः उसी गण में वापस सम्मिलित होकर रहना चाहे तो
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