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. १३१ परिहारकल्पस्थित भिक्षु द्वारा दोष सेवन का प्रायश्चित्त . **********************************************
किन्तु साधु-साध्वी भी शरीरधारी हैं। कुछ भयानक रोग, महामारी इत्यादि में ऐसी स्थितियाँ हो जाती हैं, जिनमें आहार पानी, औषध आदि को पर्युषित (कालातिक्रान्त) रखने का विधान किया गया है, जो अपवाद मार्ग है। क्योंकि साधु-साध्वियों का शरीर संयमसाधना में सहायक है, उस दृष्टि से अपवाद मार्ग का अवलम्बन करते हुए ही उसकी परिरक्षणीयता स्वीकार की गई है।
विविध सुगंधित पदार्थों के आलेपन, विलेपन का जो वर्णन आया है, उसका तात्पर्य यह है कि उसका उपयोग केवल रोगनिवृत्ति हेतु ही किया जा सकता है। दैहिक सौन्दर्यवृद्धि या सज्जा हेतु कदापि प्रयोजनीय नहीं हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है - - आहार-पानी को जो पर्युषित - कालातिक्रान्त बताया है वह भी सीमित समय (तीन प्रहर) तक ही उपयोग में ले सकता है। किसी भी स्थिति में रात्रि में ग्रहण एवं सन्निधि कदापि स्वीकार्य नहीं है। ___उपर्युक्त सूत्रों में परिवासित का अर्थ - प्रथम प्रहर में गृहीत आहार आदि को चतुर्थ प्रहर में रखना समझना चाहिए।
उपर्युक्त सूत्रों में बताए गये पदार्थ पडिहारी नहीं होने से उनके लिए अन्य औषधियों की तरह द्वितीय प्रहर की पुनः आज्ञा लेना नहीं बताया है। गाढ़ा-गाढ़ी कारण होने से इन पदार्थों को प्रथम प्रहर में ग्रहण किये हुए को चतुर्थ प्रहर में भी काम में लेना बताया है।
परिहारकल्पस्थित भिक्षु द्वारा दोष सेवन का प्रायश्चित्त परिहारकप्पट्ठिए णं भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च अइक्कमेजा, तं च थेरा जाणेज अप्पणो आगमेणं अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए णाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया॥५१॥ __ भावार्थ - ५१. परिहारकल्प में विद्यमान भिक्षु यदि स्थविर मुनियों के वैयावृत्य - सेवा-परिचर्या हेतु कहीं बाहर जाए और कदाचन उसके परिहारकल्प में कोई दोष सेवन हो जाए तथा स्थविर मुनि उसके दोष सेवन को (अपने ज्ञान से) जान ले या अन्य से जान ले तो वे वैयावृत्य से निवृत्त होने पर उसे यथालघुष्क - बहुत हल्का प्रस्थापना (प्रायश्चित्त) दें।
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