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पर्युषित आहार-औषध आदि रखने की मर्यादा ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
विवेचन - साधु-साध्वियों को पादरक्षिका या उपानह रखने का विधान नहीं है। कितनी भी लम्बी यात्रा हो, कैसा ही पथ हो, वे नंगे पैर ही चलते हैं। इससे मृत्तिका, रज आदि उनके पैरों के लगती रहती है। पैरों को पुनः-पुनः पोंछना होता है। इस हेतु काष्ठदण्ड के आगे वस्त्र लपेट कर बनाए हुए पादपोंछन का उपयोग किया जाता है। साध्वियों के लिए इसके निषेध का कारण ब्रह्मचर्य के पावित्र्य और नैर्मल्य का संरक्षण है।
मूत्र के आदान-प्रदान का निषेध णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अण्णमण्णस्स मोयं आइयत्तएं वा आइमित्तए वा णण्णत्थ गाढाऽगाढेसु रोगायंकेसु॥४६॥
कठिन शब्दार्थ - अण्णमण्णस्स - एक दूसरे का, मोयं - मूत्र, आइयत्तए - ग्रहण करना, आइमित्तए - आचमन करना, णण्णत्थ - इसके सिवाय, गाढाऽगाढेसु - अत्यन्त कष्ट साध्य स्थिति में, रोगायंकेसु - रोग तथा आतंक में। - भावार्थ - ४६. साधुओं तथा साध्वियों को एक दूसरे का मूत्र भयानक रोगों के अतिरिक्त परस्पर गृहीत करना, पीना या उसकी मालिश करना नहीं कल्पता।
विवेचन - सामान्यतः मूत्र पेय नहीं है। किन्तु आयुर्वेद के अनुसार रक्तविकार, कुष्ठ, मधुमेह इत्यादि रोगों में मूत्र सेवन एवं उसकी मालिश अमोघ औषधि का काम करता है।
ऐसी स्थितियों के अतिरिक्त साधु-साध्वियों के लिए परस्पर मूत्र का आदान-प्रदान अविहित है।
पर्युषित आहार-औषध आदि रखने की मर्यादा णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पारियासियस्स आहारस्स जाव तयप्पमाणमेत्तमवि भूइप्पमाणमेत्तमवि बिंदुप्पमाणमेत्तमवि आहारमाहारेत्तए, णण्णत्थ गाढाऽगाढेहिं रोगायंकेहिं॥४७॥
णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पारियासिएणं आलेवण जाएणं (गायाइं) आलिम्पित्तए वा विलिम्पित्तए वा, णण्णत्थ गाढाऽगाढेहिं रोगायंकेहिं॥४८॥ __णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पारियासिएणं तेल्लेण वा घएण वा
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