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बृहत्कल्प सूत्र
टुकड़ा, कण्टए - कण्टक, हीरे काच, सक्करे - तीखा पत्थर का टुकड़ा, परियावज्जेज्जाचुभ जाए, संचाएइ - समर्थ, णीहरित्तए निकालने में, विसोहेत्तए - विशोधित करने में, अच्छिंसि - नेत्र में ।
छठा उद्देश
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भावार्थ ३. साधु की पगथली (पादस्थली) में तीखा, सूखा ठूंठ का टुकड़ा, काँटा, काच या तीखे पत्थर का टुकड़ा चुभ जाए तथा वह उसे निकालने में समर्थ न हो अथवा उसका शोधन न कर पाए तब उसे निकालती हुई या शोधित करती हुई साध्वी जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती।
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४. निर्ग्रन्थ की आँख में छोटे जीव, बीज या रज गिर जाए और साधु उसे निकाल न सकें, परिशोधित न कर सके तो उसे निकालती हुई या परिशोधित करती हुई साध्वी जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती।
५. साध्वी की पगथली में यदि तीखा ठूंठ का टुकड़ा, काँटा, काच या पत्थर का टुकड़ा चुभ जाए तथा वह उसे निकालने में असमर्थ हो अथवा उसका शोधन न कर सके तब उसे निकालता हुआ या परिशोधित करता हुआ साधु जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ।
६. साध्वी की आँख में छोटा जीव (मच्छर आदि), बीज या रज गिर जाए और साध्वी उसे निकाल न सके या परिशोधित करने में समर्थ न हो तब उसे निकालता हुआ या परिशोधित करता हुआ साधु जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ।
विवेचन - ब्रह्मचर्य महाव्रत के परिपालन में यह अत्यंत आवश्यक माना गया है कि साधु साध्वी के तथा साध्वी, साधु के शरीर का कदापि स्पर्श न करे। स्पर्शजनित रागात्मक भाव का उदय इसका मुख्य कारण है। किन्तु कुछ ऐसी अनिवार्य स्थितियाँ होती हैं, जिनमें एक दूसरे का स्पर्श करना वर्जित नहीं है । यहाँ वैसी ही द्विविध स्थितियों का विवेचन है। जो साधु या साध्वी की शारीरिक, विषम हानि को मिटाने से जुड़ी है।
यद्यपि आत्मार्थी साधु या साध्वी की शरीर के प्रति कोई मूर्च्छा नहीं होती किन्तु संयम के विशेष उपकरण या साधना में अत्यंत उपयोगी होने के कारण वह परिरक्षणीय है।
इसी दृष्टि से यहाँ साधु या साध्वी के पैरं में कांटा आदि लग जाने पर तथा नेत्र में छोटे प्राणी आदि के गिर जाने पर यदि वे स्वयं उनका निवारण न कर सकें, साधुओं के साधु साथी तथा साध्वियों की सहचारिणियाँ भी उसका परिशोधन न कर सकें तो दोनों के लिए इसका विधान किया गया है, जिसमें प्रायश्चित्त नहीं आता ।
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