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कल्पस्थिति के छह प्रकार **************************AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA*********** यहाँ 'अ' का लोप होकर भिध्या शेष रहता है। यह अवशिष्टांश भी पूर्ण शब्द के रूप में प्रयुक्त है।
कल्पस्थिति के छह प्रकार छव्विहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तंजहा - सामाइयसंजयकप्पट्टिई, छेओवट्ठावणियसंजयकप्पट्टिई, णिव्विसमाणकप्पट्टिई, णिविट्ठकाइयकप्पट्टिई, जिणकप्पट्ठिई, थेरकप्पट्टिई।।२०॥त्ति बेमि।
॥बिहक्कप्पे छट्ठो उद्देसओ समत्तो॥६॥ भावार्थ - २०. छह प्रकार की कल्पस्थिति - साधु आचार की मर्यादा प्रतिपादित की गई है -
१. सामायिक चारित्र विषयक मर्यादाएँ, २. छेदोपस्थापनीय चारित्र विषयक मर्यादाएँ, ३. परिहारविशुद्धि चारित्र में अवस्थित रहने वाले भिक्षु की मर्यादाएँ, ४. परिहारविशुद्धि चारित्र को आसेवित कर चुके भिक्षुओं की मर्यादाएँ, ५. साधना हेतु गच्छ से बहिर्वर्ती भिक्षुओं की मर्यादाएँ, ६. गच्छस्थित भिक्षुओं की मर्यादाएँ।
विवेचन - इस सूत्र में साध्वाचार के छह प्रकार के कल्पों की मर्यादाओं का उल्लेख है। प्रथम कल्प सामायिक चारित्र है।
१. सामायिक चारित्र - 'समो रागद्वेषरहितभावः - ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणभावः तस्याऽऽयः प्राप्तिः । सम का अर्थ राग द्वेष रहित भाव है। दूसरे शब्दों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना है। आय का तात्पर्य प्राप्ति है। जहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप आराधना की प्राप्ति होती है, सावद्य का सर्वथा त्याग होता है, उसे सामायिक चारित्र कहते हैं।
इत्वरिक और यावत्कथिक (यावजीविक) के रूप में इसके दो भेद हैं। (अ)इत्वरिक - पंचमहाव्रतारोपण की पूर्वस्थितिगत सामायिक चारित्र इत्वरिक संज्ञक है।
(ब) यावत्कथिक (यावजीविक) - महाव्रतों के सविस्तार आरोपण के अनन्तर जीवनभर के लिए सामायिक चारित्र स्थायित्व प्राप्त करता है। इसीलिए वह यावत्कथिक कहा जाता है।
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