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१३० ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★RAKA*
बृहत्कल्प सूत्र - पंचम उद्देशक
वसाए वा णवणीएण वा गायाइं अब्भंगेत्तए वा मक्खेत्तए वा, णण्णत्थ गाढाऽगाहिं रोगायंकेहिं॥४९॥ .
. . (णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा कक्केण वा लोद्धेण वा पधूवणेणं वा अण्णयरेण वा आलेवणजाएणं गायाइं उव्वलेत्तए वा उव्वट्टित्तए वा, णण्णत्थ गाढाऽगाढेहिं रोगायंकेहिं॥५०॥)
कठिनशब्दार्थ-पारियासियस्स- परिवासित - पर्युषित कालातिक्रान्त, तयप्पमाणमेत्तमवितिल मात्र भी, भूइप्पमाणमेत्तमवि- चुटकी भर भी, बिंदुप्पमाणमेत्तमवि-बूंद मात्र भी, आलेवण जाएणं - विधि प्रकार के लेपन, आलिम्पित्तए - लेप करना, विलिम्पित्तए - विलेपन करना (चुपड़ना), मक्खेत्तए - मलना, कक्केण - उबाला हुआ, सुगन्धित द्रव्य, लोद्धेण - सुगन्धित, चूर्णित द्रव्य विशेष, पधूवणेण- अगुरु-चन्दन आदि धूप द्रव्य निर्मित, उव्वलेत्तए - उद्वर्तित करना, उव्वट्टित्तए - उपमर्दन करना।
भावार्थ - ४७. भीषण रोग के अतिरिक्त साधु-साध्वियों को तिल मात्र भी, चुटकी भर भी परिवासित आहार रखना तथा बूंद मात्र भी पानी रखना, सेवन करना नहीं कल्पता।
४८. भयानक रोग की स्थिति को छोड़कर किसी भी स्थिति में साधु-साध्वियों को किसी भी प्रकार के परिवासित लेप का (शरीर पर) आलेपन - विलेपन करना नहीं कल्पता।
४९. भयानक रोगांतक की स्थिति को छोड़कर साधु-साध्वियों को पर्युषित तेल, घी, वसा (चर्बी), नवनीत (मक्खन) का शरीर के अंगों पर अभ्यंगन - चुपड़ना या मालिश करना नहीं कल्पंतां। - (५०. भीषण रोगावस्थिति के अतिरिक्त साधु-साध्वियों को परिवासित उत्कलित सुगंधित द्रव्य, चूर्णित द्रव्य, अगुरु - चंदन आदि निर्मित धूप द्रव्य आदि का शरीरांगों पर उद्वर्तन एवं उपमर्दन करना नहीं कल्पता।)
- विवेचन - साधु-साध्वियों का जीवन सर्वथा निष्परिग्रही होता है। अतः वे किसी भी वस्तु का भविष्य के लिए संग्रह नहीं रखते। सायंकाल के पश्चात् वैसा कोई भी पदार्थ उनके पास नहीं रहता। रात्रि में खान-पान तो सर्वथा वर्जित है ही तथा रात्रि में किंचित् मात्र भी सन्निधि का भी पूर्ण वर्जन बताया है।
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