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छट्ठो उद्देसओ - छठा उद्देशक
अकल्प्य वचन निषेध - णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाइं छ अवयणाई वइत्तए, तंजहा - अलियवयणे हीलियवयणे खिंसियवयणे फरुसवयणे गारत्थियवयणे, वि(उ)ओसवियं वा पुणो उदीरित्तए॥१॥ .
कठिन शब्दार्थ - अवयणाई - अवचन - नहीं बोलने योग्य वचन, अलियवयणे - अलीकवचन, हीलियवयणे - हीलित वचन, खिंसियवयणे - खिंसितवचन, फरुसवयणे - फरुसवचन - परुषवचन, गारत्थियवयणे - गार्हस्थिकवचन, विओसवियं वा पुणो उदीरित्तएकलहोत्पादक वचन का पुनः कथन।
भावार्थ - १. साधुओं और साध्वियों को इन छह प्रकार के न बोलने योग्य वचनों का प्रयोग करना नहीं कल्पता - . अलीकवचन, हीलितवचन, खिंसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन तथा कलहोत्पादक वचनों का पुनःकथन।
विवेचन - इस सूत्र में साधु-साध्वियों के लिए वचनप्रयोग के संदर्भ में वर्णन किया है। मानव के जीवन व्यवहार में वाणी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि जैन आगमों में त्याग-प्रत्याख्यान के संदर्भ में तीन करण और तीन योग की बात आती है, वहाँ मन तथा कर्म के साथ वचन भी है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवनधारा इन तीन प्रवृत्तियों से विशेष रूप से जुड़ी रहती है। मानसिक पवित्रता और कार्मिक निर्वद्यता के साथ-साथ वाचिक शुद्धता - दोष रहितता का भी उतना ही महत्त्व है। साधु का वचन ऐसा न हो, जिसमें हिंसा, अतथ्य, क्रोध, कालुष्य, मालिन्य, छल, प्रपञ्च, आसक्ति आदि का समावेश हो।
इसी दृष्टि से यहाँ वाणी के प्रयोग की चर्चा है। इस कोटि की वाणी के लिए यहाँ अवचन का प्रयोग हुआ है, जिसका तात्पर्य - 'न बोलने योग्य' है। . सूत्र में छह प्रकार के अवचन वर्णित हुए हैं।
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