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वमन विषयक प्रायश्चित्त ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
पर चार विकल्पों में प्रदर्शित किया गया है, जो जैन आचार की सूक्ष्मावगाहिनी पद्धति के द्योतक हैं।
वमन विषयक प्रायश्चित्त इह खलु णिग्गंथस्स वा णिग्गंथीए वा राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज्जा, तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ, तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥१०॥ .. कठिन शब्दार्थ - सपाणे - जल युक्त, सभोयण - अन्नादि भोजन युक्त, उग्गाले - उद्गाल या वमन, आगच्छेज्जा - आये, उग्गिलित्ता - उगले हुए - वमन के रूप में मुँह में आए हुए, पच्चोगिलमाणे - पुनः गले से नीचे उतार ले। . भावार्थ - १०. साधु या साध्वी को रात या संध्याकाल के समय जल युक्त या अन्नादि । आहार युक्त उद्गाल - वमन (उल्टी) आ जाए तो यदि वह उसे थूक दे - परठ दे, मुँह को शुद्ध कर ले तो वह जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। यदि वह उस वमन के रूप में आए हुए आहार आदि को पुनः गले से नीचे उतार ले तो वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। - विवेचन - उद्गाल शब्द उत् उपसर्ग एवं गल् धातु के योग से बनता है। "उत् ऊर्ध्वं गलति - अशितमन्न पानादिकं मुखाभिमुखमागच्छतीति उद्गालम्" - इस व्युत्पत्ति के अनुसार खाया हुआ अन्न-पान आदि जब वमन रूप में आता है, उसे उद्गाल कहा जाता है। - अजीर्ण, वात-पित्तादि दोष, अधिक भोजन इत्यादि इसके कारण हैं। इनमें से किसी कारण वश साधु या साध्वी को अन्नादियुक्त या केवल जल, पित्तादि युक्त वमन हो जाय तो वह उसे कदापि वापस न निगले क्योंकि वैसा होने से उदर से बहिर्गत अन्न-पानादि पुनः उदर में जाते हैं और रात्रिभोजन का दोष लगता हैं। यद्यपि वह विधिवत् भोजन का रूप तो नहीं किन्तु जैसे भी हो, अन्न-पानादि का आमाशय में पुनर्गमन तो है ही। निगलने में भी किंचिद्मात्र अशन-पान के सेवन का भाव भी संभावित है। आहार विषयक शुद्धचर्या का यह परमोत्कृष्ट रूप है,जो श्रमण जीवन की अतीव निर्दोष चर्या का ज्ञान कराता है।
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