________________
बृहत्कल्प सूत्र - पंचम उद्देशक
यस्य स उद्गगतवृत्तिकः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार उद्गतवृत्तिक का आशय सूर्योदय के पश्चात् भिक्षोपसेवी से है। रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग होने से सूर्योदय के पूर्व एवं सूर्यास्त के पश्चात् किसी भी प्रकार के अशन, पान आदि चतुर्विध आहार एवं औषधादि सेवन का भिक्षु के लिए सर्वथा निषेध है। प्राणों की कीमत पर भी साधु रात्रिभोजी नहीं होता क्योंकि साधु के जीवन में प्राणों का महत्त्व नहीं है अक्षुण्ण रूप में व्रतों की परिपालना या संयम साधना का महत्त्व है। इसी तथ्य पर विविध अपेक्षाओं से सूत्र में प्रकाश डाला गया है।
संस्तृत - 'संस्तृत' शब्द सामर्थ्ययुक्त, स्वस्थ एवं यथेष्टभोजी भिक्षु के लिए हुआ है।
असंस्तृत - वृद्धावस्था, रुग्णता, विहार यात्रा की परिश्रान्ति, तीव्र तपश्चरण इत्यादि के कारण उत्पन्न असमर्थता के लिए असंस्तृत शब्द का यहाँ व्यवहार हुआ है। - विचिकित्स - यह शब्द विचिकित्सा से बना है। “विगता चिकित्सा निश्चयात्मिका बुद्धिः यत्र सा विचिकित्सा" - इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह शब्द संशय का द्योतक है।
जैसे दीपक आदि की रोशनी में सूर्यास्त होने पर भी संशयापन्न रहना। प्रामाणिक व्यक्तियों के कहने से संदेह रहित होना। पहले शंकाशील होने पर भी बाद में शंका रहित होना। यह अर्थ अध्याहार्य गम्य है। ऐसा अर्थ करने पर अन्य. सूत्रों से. बाधा नहीं आती है।
निर्विचिकित्सा - 'निर्गता विचिकित्सा यस्याः' - जिससे विचिकित्सा - संशयापन्न बुद्धि निर्गत हो चुकी है।
अर्थात् सूर्योदय हुआ है अथवा नहीं, इस प्रकार से संशयापन्न बुद्धि का न होना।
एतद्विषयक यत्किंचित् असावधानीवश यदि आहार सेवन हो जाय तो वह वहाँ अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
यहाँ भिक्षु की आहारशुद्धि के संदर्भ में जो विश्लेषण हुआ है, वह अत्यन्त सूक्ष्मता लिए हुए है। यहाँ भिक्षु के जीवन के उस क्षण की चर्चा है, जब वह आहार करने बैठता है। उस समय उसके ज्ञान में असंदिग्ध रूप में यह आभासित होता है कि सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो चुका है तो मुंह में लिया हुआ कौर, पात्र में रखा हुआ आहार आदि अग्राह्य एवं परिष्ठापनीय है।
इसे निर्विचिकित्सा (असंदिग्धता), विचिकित्सा (संदिग्धता), संस्तृत (समर्थ) तथा असंस्तृत (असमर्थ) - इन चारों शब्दों के पारस्परिक समन्वय के साथ भाषा की सूक्ष्मता के आधार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org