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बृहत्कल्प सूत्र - पंचम उद्देशक
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हो कि वे अचित्त नहीं हुए हैं तो साधु उस आहार का उपयोग न करे। इस संदर्भ में निर्णय करना उसके अपने विवेक पर आधारित है। .. शीत भोजन में गिरा हुआ पानी का बिन्दु आदि यदि अलग करने में जीवों की सुरक्षा हो सकती हो तो सुरक्षा करना चाहिए। प्रयत्न पूर्वक भी यदि सुरक्षा नहीं की जा सकती हो तो वह आहार परिस्थापनीय नहीं होता है। भाष्य में इस संबंध में विस्तार से वर्णन है। __पशु-पक्षी के संस्पर्श से अनुभूत मैथुनभाव का प्रायश्चित्त
.णिग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अण्णयरे पसुजाईए वा पक्खिजाईए वा अण्णयरइंदियजाए तं परामुसेजा, तं च णिग्गंथी साइज्जेज्जा, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ता आवजइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं।। १३॥ _णिग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अण्णयरे पसुजाईए वा पक्खिजाईए वा अण्णयरंसि सोयंसि
ओगाहेज्जा, तं च णिग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - पसुजाईए - पशु जातीय, परिक्खजाईए - पक्षी जातीय, अण्णयरेअन्यतर, परामुसेजा - स्पर्श हो जाए, सोयंसि - स्रोत में - जननेन्द्रिय (योनि) में। ... भावार्थ - १३. रात्रि में या संध्यावेला में कोई साध्वी मल-मूत्र त्याग हेतु जाए तो उस समय कोई पशु या पक्षी द्वारा उसके किसी इन्द्रिय का संस्पर्श हो जाए तथा वह उसमें मैथुनजनित सुखानुभूति करे तो उसे (कुत्सित) हस्तकर्म दोष लगता है तथा उसे अनुद्घातिक मासिक प्रायश्चित्त आता है।
१४. रात्रि में या संध्या वेला में कोई साध्वी मल-मूत्र त्याग हेतु जाए तो उस समय कोई पशुं या पक्षी उसके जननेन्द्रिय का अवगाहन करे तथा वह उसमें मैथुन जनित सुखानुभूति करे तो उसे मैथुन कर्म दोष लगता है तथा वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की भागी होती है। - विवेचन - साधनामय जीवन में ब्रह्मचर्य का सर्वाधिक महत्त्व है। अन्यान्य ऐहिक सुख-भोगों की अपेक्षा स्पर्शनेन्द्रिय सुख की व्यक्ति में अपेक्षाकृत रूप से सर्वाधिक वासना
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