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पंचमो उद्देसओ - पञ्चम उद्देशक विकुर्वणाप्रसूत विपरीत लिङ्गीय दिव्य शरीर संस्पर्श का प्रायश्चित्त
देवे य इत्थिरूवं विउव्वित्ता णिग्गंथं पडिग्गाहेजा, तं च णिग्गंथे साइजेजा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवजइ चाउम्मासियं परिहाणट्ठाणं अणुग्धाइयं॥१॥
देवे य पुरिसरूवं विउव्वित्ता णिग्गंथिं पडिग्गाहेज्जा, तं च णिग्गंथी साइजेजा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं॥२॥
देवी य इत्थिरूवं विउव्वित्ता णिग्गंथं पडिग्गाहेज्जा, तं च णिग्गंथे साइजेजा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं॥॥
देवी य पुरिसरूवं विउव्वित्ता णिग्गंथिं पडिग्गाहेजा, तं च णिग्गंथी साइजेजा, . मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥४॥
कठिन शब्दार्थ - इत्थिरूवं - स्त्री का रूप, विउव्वित्ता - विकुर्वित कर, पडिग्गाहेज्जाप्रतिगृहीत - आलिंगित करे, साइजेजा - सुखद अनुभूति करे, मेहुणपडिसेवणपत्ते - मैथुन भाव प्रतिसेवन रूप - भोगासक्तिमय।
भावार्थ - १. यदि कोई देव स्त्री रूप को विकुर्वित कर निर्ग्रन्थ को प्रतिगृहीत करे - आलिंगन करे तथा निर्ग्रन्थ उस स्पर्श से सुख अनुभव करे - उसका अनुमोदन करे तो वह (भावतः) मैथुन सेवन दोष को प्राप्त करता है एवं अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
२. यदि कोई देव पुरुष रूप की विकुर्वणा कर निर्ग्रन्थी का आलिंगन करे तथा साध्वी उसका अनुमोदन करे तो वह (भावों से) मैथुन सेवन के दोष की प्रतिभागी होती है तथा अनुपातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है।
३. यदि कोई देवी विकुर्वणा शक्ति से स्त्री रूप धारण कर निर्ग्रन्थ का आलिंगन करे तथा निर्ग्रन्थ ठसमें सुखद अनुभूति करे तो (भावतः) मैथुन सेवन दोषों की प्राप्ति के परिणामस्वरूप उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
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