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बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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३६. यदि कोई उपाश्रय तृणों से बना हो यावत् मकड़ी के जालों से रहित हो और पूर्ववर्णित रत्निमुक्तमुकुट से उस उपाश्रय के छत की ऊँचाई अधिक हो तो वैसे उपाश्रय में साधु-साध्वियों को वर्षावास में रहना कल्पता है। __इस प्रकार बृहत्कल्प का चतुर्थ उद्देशक समाप्त होता है।
विवेचन - प्रथम एवं द्वितीय सूत्र में घास-फूस से बने उस उपाश्रय में हेमन्त या ग्रीष्म ऋतु में रहने का निषेध किया गया है, जिसकी ऊँचाई कानों की ऊँचाई से कम हो। . ___ क्योंकि इस प्रकार के उपाश्रय में बार-बार सिर छत से टकरायेगा तथा घास या मिट्टी के कण बार-बार नीचे गिरने की संभावना रहेगी। अतः ऐसे स्थान में अल्प समय का प्रवास ही उत्तम रहता है। ___ वर्षावास में रनिमुक्तमुकुट (दोनों हाथों को ऊँचा कर मिलाने से बनी मुकुट जैसी आकृति) माप से ऊँची छत वाले उपाश्रय में प्रवास का विधान किया गया है। क्योंकि ऐसा स्थान असुविधाजनक तो होता ही है इसके अलावा वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग आदि में भी एकाग्रता भंग होती है, सविधि पालन में विघ्न आता है। क्योंकि लम्बे समय तक रहने में . हाथ आदि ऊँचे करने का भी प्रसंग बन सकता है।
अतः दीर्घावधि प्रवास रत्निमुक्तमुकुट के परिमाप युक्त हो।
इस प्रकार के उपाश्रयों में बिना कारण प्रवास करने पर भाष्यकार ने प्रायश्चित्त का विधान किया है।
___ इसके अलावा कम ऊँचाई वाले उपाश्रय में रहते हुए आने वाले कष्टों एवं उनके निवारणार्थ उपायों का भी भाष्यकार ने विवेचन किया है, जो जिज्ञासुओं के लिए पढ़ने योग्य है।
-- ॥बृहत्कल्प सूत्र का चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥
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