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१०१ काल धर्म प्राप्त भिक्षु के शरीर को परठने की विधि 女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女六女女女女女女女女女女女女女女女女女
संघ के प्रत्येक गण या गच्छ में आचार्य-उपाध्याय आदि पदों पर सुयोग्य भिक्षु प्रतिष्ठापित होते हैं। सभी में शास्त्राध्ययन आदि की विधिवत् व्यवस्था रहती है किन्तु ऐसे भी कारण कदाचन उपस्थित होते रहते हैं, जिससे किसी गणविशेष में श्रुताध्ययन की समीचीन व्यवस्था नहीं होती। वैसी स्थिति दृष्टिगोचर हो, कारण विशेष स्पष्ट हो तो एक गण के भिक्षु, गणावच्छेदक या आचार्य-उपाध्याय द्वारा इतर गण में आगम वाचना देने हेतु, अध्ययन कराने हेतु जाना कल्पनीय, औचित्यपूर्ण है। क्योंकि मूलतः धर्मसंघ तो एक ही है। गण भिन्नता तो व्यवस्थामूलक है।
जाने के कारण निम्नांकित हो सकते हैं - १. किसी गण या गच्छ के नवमनोनीत आचार्य को पदानुरूप श्रुत का अध्ययन करना अपेक्षित हो परन्तु संघ का दायित्व किसी को सौंपने में असमर्थ हो।
२. गणविशेष के आचार्य व्यवस्था आदि किसी विकट परिस्थिति में हो और अपने क्षेत्र को छोड़कर उनके लिए आंना संभव न हो किन्तु श्रुताध्ययन अपरिहार्य हो।
सारांश यह है, किसी गण विशेष के भिक्षु आदि का अन्य गण में अध्यापनार्थ जाना समुचित कारणों के बिना अव्यावहारिक एवं अकल्पनीय कहा है। ___ इस सूत्र से स्पष्ट है कि गण स्थित भिक्षु या पद विशेष पर अवस्थित सभी साधु आगम-निष्णात हों, यह वांछित रहा है। उसकी पूर्ति हेतु ही ऐसी व्यवस्थाएँ दी गई हैं।
काल धर्म प्राप्त भिक्षु के शरीर को परराने की विधि भिक्खू य राओ वा वियाले वा आहच्च वीसुभिज्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छेजा एगते बहुफासुए थंडिले परिद्ववेत्तएं, अस्थि या इत्थ केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे, कप्पइ से सागारियकडं गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफासुए थंडिले परिद्ववेत्ता तत्थेव उवणिक्खेवियव्वे सिया॥२९॥
कठिन शब्दार्थ - राओ - रात्रि में, वियाले - विकाल - संध्याकाल में, वीसुभिजाकालगत हो जाय।
भावार्थ - २९. यदि कोई भिक्षु कदाचित् रात्रि में या संध्याकाल में कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो उसकी सेवा-सुश्रूषा करने वाले भिक्षु को उसे एकांत में सर्वथा प्रासुक एवं स्थंडिल भूमि पर परिष्ठापित कर देना चाहिए।
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