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वाचनाप्रदायक गुरु के रूप में अन्य गण में जाने का विधि-निषेध
6. कृतिकर्म - विधिवत् वंदन व्यवहार (दीक्षा ज्येष्ठों के प्रति) का पालन करना (प्रतिक्रमण तथा अन्य करणीय अवसरों पर)।
ए. वैयावृत्य • शारीरिक सेवा करवाना, आहार आदि लाकर देना, वस्त्र आदि स्वच्छ करना और उनकी सिलाई करना, मल-मूत्र परठना, रुग्णता में औषध-भैषज आदि से सेवासुश्रूषा करना तथा आवश्यकतावश अन्य भिक्षु से करवाना। _90. समवसरण - एक ही प्रवास स्थल पर उठना, बैठना, सोना आदि सामान्य क्रियाएँ करना।
99. सन्निषधा - समान आसन पर बैठना तथा बैठने के लिए स्वयं का आसन देना। १२. कथाप्रबंध - परिषद् में एक साथ प्रवचन करना।
साध्वियों के लिए श्रुतं, अंजलिप्रग्रह, शिष्यदान, अभ्युत्थान, कृतिकर्म एवं कथाप्रबंध - ये छह ही सांभोगिक व्यवहार उत्सर्ग मार्ग हेतु विहित किए गए हैं। शेष छह. अपवाद मार्ग के अन्तर्गत आते हैं।
ये व्यवहार पार्श्वस्थों, स्वच्छंदचारियों, गृहस्थों या बिना कारण साध्वियों के साथ करने पर भाष्यकार ने विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन किया है, जो जिज्ञासुओं के लिए पठनीय है। ___ यहाँ यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि अन्य गण में सांभोगिक व्यवहारार्थ गए साधु को पश्चात् यह मालूम हो कि यहाँ कि परिस्थितियाँ संयम एवं साधना के अनुकूल नहीं हैं अथवा यहां संयम और विनय की हानि हो रही है तो उसे तुरन्त उस गण को छोड़ देना चाहिए।
सूत्र में "जत्थुत्तरियं धम्मविणयं णो लभेञ्जा एवं से णो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए......" इस अंतिम वाक्य से यह स्पष्ट है।
क्योंकि पंचमहाव्रतधारी साधु जिस उद्देश्य (ज्ञान-ध्यान की वृद्धि हेतु) से अन्य गण में जाता है, यदि वही उद्देश्य पूर्ण न हो, उलटा संयम एवं आचार की हानि हो तो उसे वहाँ क्षण भर भी नहीं ठहरना चाहिए।
वाचनाप्रदायक गुरु के रुप में अन्य गण में जाने का विधि-निषेध
भिक्खू य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावेत्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावेत्तए:
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