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बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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सम् उपसर्ग सम्यक् या भलीभाँति तथा साहचर्य - एक साथ, समवेत रूप में सहभागिता के रूप में प्रयुक्त है। इसके अनुसार इसका अर्थ अच्छी तरह भोजन करना है। मानव जीवन में भोजन की सर्वाधिक महत्ता है। उसी के आधार पर उठना, बैठना, चलना, फिरना आदि क्रियाएँ संपादित होती हैं। इसीलिए 'संभोग' शब्द का अर्थ भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'साथ-साथ खाना, पीना, चलना, फिरना' आदि हुआ।
भाषा विज्ञान की अपेक्षा से अर्थ परिवर्तन की विविध विचित्र दशाएँ हैं। जो संभोग शब्द कभी खान-पान आदि के अर्थ में व्यवहृत था, उसका अर्थ परिवर्तित होते-होते आज - 'काम सेवन' तक पहुंच गया है। इस समय संभोग का अर्थ खान-पान आदि के रूप में कहीं भी व्यवहृत नहीं है। यह अर्थापकर्ष का उदाहरण है। . कहीं-कहीं अर्थ उत्कर्षगामी होते हैं तो कहीं-कहीं हीनभाव द्योतक बन जाते हैं।
जैन आगमों में प्रयुक्त संभोग शब्द उस काल के अर्थ के आशय का द्योतक है, जब वह शब्द अपने व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ में ही प्रयुक्त था। - अत एब इस सूत्र में भिक्षु के सांभोगिक व्यवहार का संबंध भोजन तथा अन्यान्य दैनंदिन क्रियाओं से है। . .
यहाँ गंण शब्द का अर्थ एक बड़े संघ के अन्तर्गत व्यवस्था की दृष्टि से विभाजित समुदायों से है। जिसकी मूलतः आचार विद्या एवं मर्यादाएँ भिन्न नहीं होती।
व्यवस्था की दृष्टि से वे पृथक्-पृथक् विचरणशील होते हैं। समवायांग सूत्र के १२ वें समवाय में संभोग के १२ भेद बतलाए गए हैं - १. उपधि - वस्त्र-पात्रादि का आदान-प्रदान।। २. श्रुत - शास्त्रविषयक आचार-विचार या वाचना आदि का आदान-प्रदान। ३. भक्तपान - परस्पर आहार-पानी, औषध आदि का व्यवहार करना।
४. अंजलिप्रग्रह - रत्नाधिक - संयम पर्याय ज्येष्ठ साधुओं के पास अंजलिबद्ध होकर खड़े होना तथा मार्ग आदि में सामने मिलने पर मस्तक झुकाकर करबद्ध होना। . ५. दान - शिष्य संपदा का आदान-प्रदान करना।
६. निमंत्रण - शय्या, उपधि, आहार, स्वाध्याय आदि हेतु आमंत्रित करना। ७. अभ्युत्थान - दीक्षा ज्येष्ठ के उपस्थित होने पर उनके सम्मान में खड़े होना।
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