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सांभोगिक व्यवहार हेत अन्य गण में जाने का विधान .
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उसे (गणावच्छेदक को) आचार्य यावत् गणावच्छेदक की आज्ञा से अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु जाना कल्पता है।
यदि वे आज्ञा दें तभी अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु जाना कल्पता है। "
यदि आज्ञा नहीं देवें तो अन्य गण में गणावच्छेदक का सांभोगिक व्यवहारार्थ जाना नहीं कल्पता है।
(तथापि) यदि वह यह पाता है कि यहाँ विनय और धर्म की उन्नति हो रही है तभी उसका अन्य गण के साथ सांभोगिक व्यवहार करना कल्पता है।
यदि वह देखे कि यहाँ संयम और धर्म की उन्नति नहीं हो रही है तो उसे उस अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार करते हुए रहना नहीं कल्पता है। . .. - २५. आचार्य या उपाध्याय स्वगण को छोड़कर अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु जाना चाहें तो उन्हें अपने आचार्य या उपाध्याय (संज्ञक) पदों का त्याग किए बिना जाना नहीं कल्पता है।
(अपितु किसी योग्य शिष्य को) अपने पद के समर्पण पूर्वक - त्याग के उपरान्त (आचार्य या उपाध्याय को) अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु जाना कल्पता है।
आचार्य या उपाध्याय को आचार्य यावत् गणावच्छेदक की आज्ञा के बिना (उन्हें पूछे बिना) अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु जाना नहीं कल्पता हैं।
उन्हें आचार्य यावत् उपाध्याय की आज्ञा से अन्य गण में सांभोगिक व्यवहारार्थ जाना कल्पता है। .
यदि वे आज्ञा दें तो ही अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु जाना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य गण में सांभोगिक व्यवहारार्थ जाना नहीं कल्पता है।
(इसके अलावा) यदि वहाँ धर्म और विनय की उत्तरोत्तर उन्नति हो तभी (उस) अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु ठहरना कल्पता है। .. पदि वहाँ धर्म और विनय की उन्नति न होती हो तो (उस) अन्य गण में सांभोगिक व्यवहार हेतु रहना नहीं कल्पता है।
विवेचन- 'सम्' उपसर्ग, ‘भुज्' धातु और घञ्' प्रत्यय के योग से 'संभोग' शब्द निष्पन्न होता है। "सम्यक् भुज्यते भोजनादि क्रिया सम्पाद्यते अनेन इति संभोगः।"
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