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श्रुतग्रहण हेतु अन्य गण में जाने का विधि-निषेध - *************************************************************
(अर्थात्) यदि वे आज्ञा दें (तो ही) अन्य गण की उपसंपदा को स्वीकार करना कल्पता है।
(तथा) यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य गण में जाना नहीं कल्पता है।
२१. यदि गणावच्छेदक स्वगण को छोड़कर अन्य गण में ज्ञान संपदादि प्राप्ति हेतु जाना चाहें तो उन्हें अपने पद का त्याग किए बिना अथवा अपने अधिकारों को आचार्य आदि को समर्पित किए बिना अन्य गण में जाना नहीं कल्पता है।
(पुनश्च) गणावच्छेदक को अपने पद का त्याग कर अन्य गण में जाना कल्पता है।
(इसके अलावा) उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक की आज्ञा के बिना. - उन्हें पूछे बिना अन्य गण में जाना नहीं कल्पता है।
वे आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्य गण में ज्ञान, आचारादि की शिक्षा प्राप्त करने हेतु जा सकते हैं।
___ (अर्थात्) यदि वे आज्ञा दें (तभी) अन्य गण में जाना कल्पता है। . . यदि वे आज्ञा न दें तो गणावच्छेदक को अन्य गण में ज्ञानसंपदार्थ जाना नहीं कल्पता है। .
२२. यदि आचार्य या उपाध्याय स्वगण को छोड़कर ज्ञान, आचार आदि की प्राप्ति हेतु अन्य गण की आज्ञा में जाना चाहें तो आचार्य एवं उपाध्याय को अपने आचार्य-उपाध्याय संज्ञक पद का त्याग किए बिना अन्य गण में जाना नहीं कल्पता है।
(वरन्) आचार्य या उपाध्याय को अपने पद के त्यागपूर्वक - अन्य योग्य भिक्षु को समर्पणपूर्वक अन्य गण को स्वीकार करना कल्पता है। __ (तथापि) उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक से पूछे बिना अन्य गण में जाना नहीं कल्पता।
उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक की आज्ञा से अन्य गण में जाना कल्पता है।
यदि ये आज्ञा देते हैं (तो ही) अन्य गण को ज्ञान, दर्शन आदि प्राप्त करने हेतु स्वीकार करना कल्पता है।
यदि ये आज्ञा नहीं देते हैं तो स्वीकार करना कल्पनीय नहीं होता।
विवेचन - जैन दर्शन में ज्ञान की सर्वातिशायी महत्ता रही है। उत्तमोत्तम ज्ञान ही आचार पक्ष को सबल बनाता है। इसके अलावा जैसा ज्ञान होगा वैसी ही क्रिया होगी। अतः
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