________________
९२ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
ज्ञानप्राप्ति हेतु भिक्षु को, वह चाहे जिस पद पर भी क्यों न हो, अन्य गण में जाने की आज्ञा दी गई है।
यहाँ यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि भिक्षु के लिए केवल ज्ञान पिपासा ही मुख्य नहीं है। आचार्य यावत् गणावच्छेदक की आज्ञा को यहाँ सर्वोपरि कहा गया है। अतः अन्तिम निर्णय संघ की मर्यादा एवं स्थिति को देखकर ही किया जाता है।
गणावच्छेदक एवं आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए यहाँ जो पदत्याग पूर्वक अन्य गण की सेवा में जाने का विधान किया गया है, वह भी अति महत्त्वपूर्ण है।
जो शैक्ष है, ज्ञान प्राप्ति हेतु जा रहा है, उसके लिए यह आवश्यक है कि वह विनयवान हो न कि अधिकार सम्पन्न। क्योंकि अन्य गण में 'ज्ञान प्रदाता' या 'गुरु' आचार्य या उपाध्याय से निम्न पद का भी हो सकता है अथवा अनुभववृद्ध स्थविर साधु भी हो सकता है। अत: ज्ञान प्राप्ति में पद की गरिमा आड़े न आए, विनीत भाव की कमी न आए, एतदर्थ पद समर्पण का विधान किया गया है। इसके अलावा जहाँ पद आदि के अधिकार छूटते हैं वहाँ उन-उन कर्त्तव्यों - संघ आदि हेतु करणीय विशेष कार्यों से भी मुक्ति मिलती है। अतः दत्तचित्त होकर, चिन्तामुक्त होकर अध्ययन, चिन्तन, मनन करना संभव हो पाता है।
. यहाँ ज्ञातव्य है कि साधु आज्ञा प्राप्त होने पर अकेला ही विहार कर अन्य गण में जा सकता है किन्तु साध्वी के लिए अकेली विहार करने का सर्वथा निषेध होने से कम से कम एक साध्वी को उसके साथ अवश्य जाना चाहिए। इसके अलावा साध्वी के लिए आचार्य, उपाध्याय आदि की आज्ञा के साथ-साथ प्रवर्तिनी की आज्ञा भी आवश्यक होती है।
. सांभोगिक व्यवहार हेतु अन्य गण में जाने का विधान
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तिं वा थेरं वा गणिं वा. गणहरं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, ___ कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से वियरेजा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, ते य से णो वियरेजा.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org