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वस्त्र-ग्रहण संबंधी विधि-निषेध
संपूर्ण चर्म में मृग आदि पशु का आकार दृश्यमान रहता है, जो हिंसामूलकता का सूचक है। अत एव खण्ड के रूप में लेने का विधान किया गया है।
यदि रोम रहित चर्म प्राप्त न हो सके तो साधु को रोम सहित लेना पड़े तो वह ऐसा हो, जो लुहार, सुनार इत्यादि के नित्य काम में आता हो क्योंकि वैसे चर्मखण्ड में जीवोत्पत्ति की आशंका नहीं रहती। अन्यथा बालों वाले चर्मखण्ड में जीव उत्पन्न हो सकते हैं।
साध्वियों के लिए रोम सहित चर्मखण्ड लेने का निषेध इसलिए है क्योंकि इसके संस्पर्श से ब्रह्मचर्य भावना का व्याहत होना आशंकित है क्योंकि उसमें पुरुष के दैहिक संस्पर्श की अनुभूति की संभावना रहती है।
भाष्यकार ने इस संदर्भ में विस्तृत चर्चा की है। रोम रहित चर्मखण्ड लेने का विधान इसलिए हुआ है कि रोग आदि में रक्त, श्लेष्म, प्रस्रवण आदि का संश्लेष होने पर वस्त्र की अपेक्षा सफाई आदि की सुविधा रहती है।
भाष्यकार ने इसकी स्वीकार्यता के संदर्भ में संधिवात, अर्श, चर्मरोग, अतिशीतकाल, अत्यंत उष्णता, पैरों में छाले पड़ने से नंगे पाँव चलने में कठिनता इत्यादि हेतु निरूपित किए हैं, जो दैहिक आवश्यकताओं की दृष्टि से वांछित है।
वस्त्र-ग्रहण संबंधी विधि-निषेध । णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा कसिणाई वत्थाई धारेत्तए वा परिहरित्तए वा। कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अकसिणाई वत्थाई धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥७॥ ___णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अभिण्णाई वत्थाई धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥८॥
कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा भिण्णाई वत्थाई धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥९॥
भावार्थ - ७. साधु-साध्वियों को कृत्स्न (संपूर्ण) वस्त्रों को रखना अथवा उपयोग . करना नहीं कल्पता है।
साधु-साध्वियों को अकृत्स्न वस्त्र रखना या उनका उपयोग करना कल्पता है।
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