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चउत्थो उद्देसओ - चतुर्थ उद्देशक
अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के हेतु तओ अणुग्धाइया पण्णत्ता, तंजहा - हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं पडिसेवमाणे, राईभोयणं भुंजमाणे॥१॥
कठिन शब्दार्थ - अणुग्घाइया - विशिष्ट तप से शुद्धि योग्य दोष, हत्थकम्मं - हस्तकर्म, मेहुणं - स्त्री के साथ यौन सम्पर्क। "
भावार्थ - १. अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के योग्य (निम्नांकित) तीन हेतु हैं - ।
१. हस्तकर्म - हस्त मैथुन करता हुआ, २. मैथुन प्रतिसेवन कस्ता हुआ तथा ३. रात्रि भोजन करता हुआ (साधु अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का भागी होता है)।
विवेचन - प्रायश्चित्त शब्द का जैन, वैदिक एवं बौद्ध आदि विभिन्न परंपराओं में साधना के संदर्भ में उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि साधक के लिए अपने साध्य को अधिगत करने हेतु अपनी साधना में अविचल रूप में रत रहना चाहिए। किन्तु आखिर वह भी तो मानव ही है। जब विकारोत्पादक हेतु विशेष रूप से सम्मुख उपस्थित होते हैं या अन्तःकरण में उभर आते हैं तो वह कदाचन पदच्युत हो जाता है। पदच्युत होने पर जो संभल पाए वह अध:पतित नहीं होता, पुनः अपने सद्धर्म में संस्थित हो जाता है। जिस प्रकार दैहिक रोग की निवृत्ति के लिए चिकित्सा आवश्यक है, उसी प्रकार आचरित पापपूर्ण प्रवृत्तियों के लिए तपश्चरण द्वारा पापशोधन आवश्यक है। . "तपसा निर्जरा" के अनुसार तपस्या से कर्मों की निर्जरा होती है।
प्रायश्चित्त शब्द कर्म निर्जरात्मक तप के साथ जुड़ा हुआ है। "प्रकर्षण आयः यस्य स प्रायः" - जीवन में जिसके आने के विशेष, अनेक प्रसंग हों, उसे 'प्रायः' कहा जाता है। पुण्य और पाप में सामान्यतः व्यक्ति की प्रवृत्ति पापमूलक अधिक होती है। पुण्यात्मक प्रवृत्ति तो अध्यवसाय, उद्यम और प्रयत्न से साध्य होती है। यही कारण है कि जगत् में पुण्यात्मा कम हैं और पापात्मा अधिक हैं। इन्हीं स्थितियों के कारण भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'प्रायः' शब्द पाप के अर्थ में सन्निहित (रूढ) हो गया। तदनुसार 'प्रायस्य - पापस्यचित्तं शोधनं यस्मात् स प्रायश्चित्तः' - जिसके द्वारा पाप का विशोधन या अपगम हो, वह प्रायश्चित्त है।
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