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सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में गोचरी जाने एवं प्रवास का विधान
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सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में गोचरी जाने एवं प्रवास का विधान से गामस्स वा जाव रायहाणीए (संणिवेसंसि) वा बहिया सेण्णं संणिविट्ठ पेहाए कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा तहिवसं भिक्खायरियाए गंतुं पडिणियत्तए, णो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवाइणावित्तए, जे खलु णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा तं रयणिं तत्थेव उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ, से दुहओ वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥३०॥
कठिन शब्दार्थ - पेहाए - दिखाइ देवे, भिक्खायरियाए - भिक्षाचर्या - गोचरी के लिए, पडिणियत्तए - वापस लौटाना, उवाइणावित्तए - बीताना, वहीं रहना।
भावार्थ - ३० यदि ग्राम यावत् राजधानी के बाहर (शत्रु की) सेना का पड़ाव दिखाई दे तो साधु-साध्वियों को (उसकी निकटवर्ती बस्ती में) भिक्षाचर्या हेतु जाकर उसी दिन वापस 'लौटना कल्पता है।
जो साधु-साध्वी वहाँ रात्रि बीताते हैं अथवा रात्रि व्यतीत करने वाले का अनुमोदन करते हैं, वे दोनों का - जिनाज्ञा और राजाज्ञा का अतिक्रमण करते हैं तथा (वे) चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
विवेचन - आचारांग सूत्र में भी सेना के पड़ाव के निकट से साधु-साध्वियों के लिए गमनागमन का निषेध किया गया है। केवल अपवाद मार्ग के रूप में इसे स्वीकार किया गया है। __ अर्थात् अति आवश्यक होने पर ही सेना के पड़ाव के नजदीक से गमनागमन करना चाहिए। इसके अलावा जिन सैन्य-शिविरों में भिक्षाचरों आदि को आवागमन की छूट हो, वहाँ भी गोचरी कर उसी दिन वापस लौटना कल्पता है।
यदि गमनागमन निषिद्ध हो तो भिक्षु जिनाज्ञा के साथ-साथ राजाज्ञा उल्लंघन का भी भागी होता है, जिसके प्रायश्चित्त के संदर्भ में भावार्थ में उल्लेख हुआ है। ___ इसके अलावा भाष्यकार ने उन परिस्थितियों का भी उल्लेख किया है. जिनके अकस्मात उत्पन्न हो जाने पर साधु को इस अपवाद मार्ग का सेवन करना पड़े।
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