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बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक
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• अवग्रह क्षेत्र का विधान से गामंसि वा जाव संणिवेसंसि वा कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिण्हित्ताणं चिट्ठित्तए॥३१॥त्ति बेमि॥
बिहक्कप्पे तइओ उद्देसओ समत्तो॥३॥ कठिन शब्दार्थ - सकोसं - एक कोस सहित, सव्वओ - सर्वतः - चारों दिशाओं में, ओगिण्हित्ताणं - ग्रहण करना।
भावार्थ - ३१. ग्राम यावत् सन्निवेश में प्रवास करते हुए साधु-साध्वियों का सर्वतःचारों दिशाओं में कोस सहित एक योजन (सवा योजन) का अवग्रह ग्रहण करना कल्पता है।
विवेचन - चातुर्मास में साधु-साध्वी किसी उपाश्रय या स्थान विशेष में प्रवास करते हैं तो उन्हें गोचरी एवं उच्चार प्रस्रवण आदि हेतु सीमांकन करना होता है। यहाँ जो सवा योजन कहा गया है, वह दो दिशाओं को मिलाकर कहा गया है। जैसे - ढाई कोस पूर्व में जाने पर ढाई कोस ही पश्चिम में गमनागमन किया जा सकता है। इस प्रकार पाँच कोस या सवा योजन का अवग्रह क्षेत्र शास्त्रानुरूप स्वीकृत किया गया है। ___यद्यपि मोचरी के लिए भिक्षु को दो कोस तक ही जाना कल्पता है तथापि ढाई कोस कहने का आशय यह है कि दो कोस गोचरी के लिए गये हुए भिक्षु को वहाँ कभी मल-मूत्र की बाधा हो जाये तो बाधा निवारण के लिए वहाँ से वह आधा कोस और आगे जा सकता है। तब कुल अढाई कोस एक दिशा में गमनागमन होता है। पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण यों दो-दो दिशाओं के क्षेत्र का योग करने पर पाँच कोस अर्थात् सवा योजन का अवग्रह क्षेत्र होता है। उसे ही सूत्र में 'सकोस योजन अवग्रह क्षेत्र' कहा है। इस प्रकार तृतीय उद्देशक समाप्त होता है।
॥बृहत्कल्प का तृतीय उद्देशक समाप्त।
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