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बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक
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२. अव्याकृत · अनेक स्वामियों से युक्त गृह, किन्तु जिसका स्पष्ट विभाग या विभाजन नहीं किया गया हो।
३. अपरपरिगृहीत - गृहस्वामी द्वारा त्यक्त तथा अन्य किसी के भी अधिकार से रहित भवन।
४. अमरपरिगृहीत • व्यन्तर या यक्ष आदि देवों द्वारा गृहीत मकान जिसे गृहस्वामी ने इनकी उपस्थिति के कारण छोड़ दिया हो । - इन स्थानों में भी पूर्व साधुओं द्वारा ली हुई अनुज्ञा के अनुसार(आने वाले नए साधु)उपयोग में ले सकते हैं।
क्योंकि पूर्व वर्णित चारों स्थितियों वाले भवन श्रमणोंपासकों के लिए सामान्यतः नियमित उपयोग में नहीं आते हैं अथवा स्वामित्ववर्जित होते हैं। ___ यदि ये ही स्थान व्यापृत, व्याकृत और परपरिगृहीत हो जाएं तो मर्यादानुसार पुनः आज्ञा लेना कल्पता है।
मार्ग आदि में पूर्वाज्ञा का विधान से अणुकुड्डेसु वा अणुभित्तीसु वा अणुचरियासु वा अणुफरिहासु वा अणुपंथेसु वा अणुमेरासु वा सच्चे उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे॥२९॥
कठिन शब्दार्थ - अणुकुड्डेसु - मृत्तिका आदि से निर्मित भित्ति का निकटवर्ती भाग, .. अणुभित्तीसु - ईंट,प्रस्तर आदि से बनी दीवाल के पास का भू भाग, अणुचरियासु - नगर
के परकोटे और खाई के बीच का आठ हाथ प्रमाण मार्ग, अणुफरिहासु - नगर के चारों ओर स्थित खाई का निकटवर्ती भाग, अणुपंथेसु - मार्ग का समीपवर्ती स्थान, अणुमेरासु - (अनुमर्यादासु)नगर का समीपवर्ती स्थान । ... भावार्थ - २९ अनुकुड्य, अनुभित्ति, अनुचरिका, अनुपरिखा, अनुपथ और अनुमर्यादित स्थानों में भी पूर्वस्थित साधुओं द्वारा ली हुई आज्ञा के अनुसार यथालन्दकाल - शास्त्रमर्यादानुसार प्रवास किया जा सकता है।
विवेचन - दीवाल के पास की भूमि आदि के स्वामित्व के विषय में भाष्यकार ने विशद चर्चा की है। अर्थात् भित्ति आदि के पास की कितनी भमि का स्वामित्व मकान मालिक का तथा कितनी का राजा (शकेन्द्र) आदि का होता है, इत्यादि विवेचन भाष्य में प्राप्त है, जो जिज्ञासुओं के लिए पठनीय है।
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