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बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
८.. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को अभिन्न - अखण्ड वस्त्रों को रखना और उनका उपयोग करना नहीं कल्पता है।
९. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को भिन्न - खण्डित (अंसपूर्ण) वस्त्रों को धारण करना और उपयोग में लेना कल्पता है।
विवेचन - 'कृत्स्न' शब्द जैसा कि पहले विवेचन हुआ है, संपूर्ण के अर्थ का द्योतक है। अतः कृत्स्न वस्त्र का तात्पर्य संपूर्ण वस्त्र से - जैसा मील आदि से प्राप्त हुआ, उस पूरे थान से है।
गृहस्थ आदि द्वारा उपयोग में लेने के पश्चात् या किसी पूरे थान में से कुछ भाग काम में ले लिया जाय तो वह अकृत्स्न हो जाता है। ___यहाँ सूत्रकार ने 'कृत्स्न', 'अकृत्स्न' के अलावा ‘भिन्न' और 'अभिन्न' - ये दो शब्द और दिए हैं। ये भी क्रमशः असंपूर्ण और संपूर्ण (कृत्स्न) अर्थ के द्योतक ही हैं।
भाष्यकार ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है -
'कृत्स्न' शब्द में वस्त्रों के वर्ण एवं मूल्य का समावेश होता है अर्थात् यह संपूर्णता या कृत्स्नता भाव रूप है, अतः इसे 'भावकृत्स्न' कहा गया है तथा अभिन्न का तात्पर्य 'द्रव्य कृत्स्न' से है। अर्थात् जैसा वस्त्र मूल रूप में प्राप्त हुआ, वैसा संपूर्ण थान, जो उपयोग में नहीं लिया गया है, अभिन्न (अछिन्न) कहा जाता है।
द्रव्यकृत्स्न, सकल द्रव्यकृत्स्न और प्रमाण द्रव्यकृत्स्न के रूप में दो प्रकार का होता है।
आदि एवं अन्त भाग युक्त, कोमल स्पर्श युक्त, धब्बे आदि से रहित वस्त्र सकल द्रव्य कृत्स्न कहा जाता है।
. इसके तीन भेद हैं यथा - जघन्य (मुखवस्त्रिका), मध्यम (चोलपट्ट) तथा उत्कृष्ट (चादर)।
जो वस्त्र मर्यादित लम्बाई - चौड़ाई से अधिक प्रमाणयुक्त हों, उन्हें द्रव्यप्रमाण कृत्स्न कहा जाता है।
किसी देश विशेष में उपलब्ध वस्त्र क्षेत्र कृत्स्न तथा काल विशेष (जैसे गर्मी में सूती वस्त्र) में प्राप्त वस्त्र काल कृत्स्न कहे जाते हैं।
भावकृत्स्न दो प्रकार का कहा गया है - वर्णयुत और मूल्ययुत।
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