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प्रातिहारिक शय्या-संस्ताक को व्यवस्थित लौटाने का विधान
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प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक को व्यवस्थित लौटाने का विधान
णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पडिहारियं सेज्जासंथारयं आयाए अपडिहट्ट संपव्वइत्तए॥ २२॥ ___णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कट्ट संपव्वइत्तए॥२३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - आयाए - आदाय - लेकर, अपडिहट्ट - अप्रतिहृत्य - पुनः देकर (वापस लौटाकर), संपव्वइत्तए - चले जाना - ग्रामान्तर गमन करना, सागारियसंतियं - सागारिक से संबंधित (सागारिक के स्वामित्व से युक्त), अविकरणं - अव्यवस्थित रूप में - जिस स्थान से जिस वस्तु को लिया उसी स्थान पर उस वस्तु को स्थापित न करना, विकरणं - यथास्थान स्थापित करना।
भावार्थ - २२. साधु-साध्वियों द्वारा (गृहस्वामी से) प्रातिहारिक रूप में लिए गए शय्या-संस्तारक को पुनः लौटाए बिना विहार करना - दूसरे स्थान में गमन करना नहीं कल्पता है।
२३. साधु-साध्वियों को सागारिक के स्वामित्व से युक्त प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक को अविकरण रूप में लौटाना नहीं कल्पता।
साधु-साध्वियों को सागारिक के स्वामित्व से युक्त प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक को 'विकरण' रूप में लौटाना कल्पता है।
विवेचन - शरीर के प्रमाण जितने डाभ, घास-फूस आदि के आसन शय्या कहलाते हैं। ढाई हाथ प्रमाण युक्त पांड, फलक आदि को संस्तारक कहते हैं। ये 'प्रातिहारिक' - पुनः लौटाने का कहकर लाए गए होते हैं। अतः साधु-साध्वी जब किसी स्थान विशेष पर कुछ समयावधि या चातुर्मास आदि हेतु ठहरते हैं तो ये सागारिक के यहाँ से आवश्यकतानुसार शय्या-संस्तारकं ग्रहण कर सकते हैं।
जब वे उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थान की ओर गमन करते हैं तब उसे अविकरित लौटाना नहीं कल्पता वरन् विकरित रूप में लौटाना कल्पता है।
भाष्यकार ने 'विकरणम्' शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है - 'विकरणं नाम यथारूपेण यत्स्थानाद्वा आनीतं तथारूपेण तत्रैव स्थाने स्थापनम्, तस्य
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