________________
बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक
७०
करणम् - विकरणम्' - जिस रूप में, जिस स्थान से जो वस्तु लाई गई है, उस वस्तु को उसी स्थान पर, उसी रूप में पुनः स्थापित करना 'विकरणम्' कहलाता है। ऐसा न करना 'अविकरणम्' संज्ञा से अभिहित हुआ है। ____ इस प्रकार शय्यातर के स्थान से लाई गई वस्तु को पुनः न लौटाने से साधु प्रायश्चित्त का भागी तो होता ही है, भविष्य में भी उसे शय्या-संस्तारक प्राप्त करने में असुविधा होती है तथा तृतीय महाव्रत में भी दूषण लगता है। ___प्रातिहारिक वस्तु को अच्छी तरह स्वच्छ करके, जीव आदि होने की आशंका होने पर धूप में आतापित करके पुनः लौटाना चाहिए।
यदि पीठफलक आदि कहीं से टूट-फूट गए हों तो शय्यादाता को उसकी विवेकपूर्वक सूचना देनी चाहिए।
शय्या-संस्तारक खो जाने पर अन्वेषण का विधान ... इह खलु णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पडिहारिए वा सागारियसंतिए वा
सेज्जासंथारए विप्पणसिज्जा से य अणुगवेसियव्वे सिया; से य अणुगवेसमाणे लभेज्जा, तस्सेव पडिदायव्वे सिया; से य अणुगवेसमाणे णो लभेजा, एवं से कप्पइ दोच्चं पि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - विप्पणसिजा - (चोरादि द्वारा) अपहृत हो जाए, अणुगवेसियव्वेगवेषणा - खोज करनी चाहिए, लभेज्जा - प्राप्त हो जाए, पडिदायव्वे - लौटा देनी चाहिए, अणुण्णवित्ता - आज्ञा लेकर। ___भावार्थ - २४. साधु-साध्वियों द्वारा प्रातिहारिक रूप में प्राप्त या सागारिक के स्वामित्व से युक्त (जो वस्तु उपाश्रय में लाई गई है) अथवा शय्या-संस्तारक यदि (चोरादि द्वारा) अपहृत हो जाए तो उसका अन्वेषण, गवेषण करना चाहिए। 'यदि अन्वेषण करने पर प्राप्त हो जाए तो उसी (शय्यातर) को देना चाहिए।
अन्वेषण करन पर यदि (कदाचित्) प्राप्त न हा ता दुबारा (शय्यातर का) आज्ञा लंकर - प्रातिहारिक (शय्या-संस्तारक आदि) ग्रहण करना कल्पता है।
विवेचन - साधु-साध्वियों द्वारा प्रातिहारिक रूप में गृहीत शय्या, संस्तारक, पाट,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org