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(अपितु) पूर्व गृहीतं वस्त्रों (पात्र, रजोहरण आदि) को लेकर प्रव्रजित होना कल्पता है । विवेचन - एक हाथ चौड़े और चौबीस हाथ लम्बे थान को कृत्स्न वस्त्र माना जाता है। रजोहरण आदि उपकरणों में प्रयुक्त वस्त्र को मिलाकर कुल बहत्तर हाथ लम्बा हो जाता है। मच्छरदानी के एवं पुस्तकों को बांधने आदि के वस्त्र बहत्तर हाथ में नहीं गिने जाते हैं ।
इस प्रकार नवदीक्षित साधुओं के लिए तीन थान तथा नवदीक्षित साध्वियों के लिए उपर्युक्त माप के चार थान गृहीत करने का विधान है।
यदि किसी कारण से दीक्षा छेद आदि का प्रसंग उपस्थित हो जाय तो पूर्व गृहीत वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि ही पुनः प्रयुक्त किए जा सकते हैं। क्योंकि इन भौतिक पदार्थों के परिवर्तन या नवीनीकरण का कोई महत्त्व नहीं है।
सर्वप्रथम दीक्षित होने वाले साधु-साध्वी को ये उपकरण उनके सगे-संबंधियों एवं मातापिता द्वारा प्रदान किए जाते हैं।
प्रथम समवसरण में वस्त्र ग्रहण निषेध एवं द्वितीय में विधान
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प्रथम समवसरण में वस्त्र ग्रहण निषेध एवं द्वितीय में विधान
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णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताइं चेलाई पडिगाहित्तए, कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा दोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताइं चेलाई पडिगाहित्त ॥ १५ ॥
कठिन शब्दार्थ - उद्देसपत्ताई - उद्देशप्राप्तानि - क्षेत्र, काल विभाग के अनुसार प्राप्त करना, चेलाई - वस्त्रों को ।
भावार्थ - १५. साधु-साध्वियों को प्रथम समवसरण के क्षेत्र (जहाँ चातुर्मास हो ) एवं काल (चार महीने) में वस्त्र ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
( वरन् ) साधु-साध्वियों को द्वितीय समवसरण (के क्षेत्र एवं काल) में वस्त्र ग्रहण कल्पता है।
विवेचन - 'सम' और 'अव' उपसर्गपूर्वक 'सृ' धातु से समवसरण शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ-भलीभाँति आगमन, पदार्पण या अवस्थान है।
साधु-साध्वा चातुमांस हेतु किसी योग्य स्थान पर आकर भलीभांति अवस्थित होते है, उसे प्रथम समवसरण कहते हैं । मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा से लेकर आषाढ शुक्ल पूर्णिमा पर्यन्त आठ मास तक का समय द्वितीय समवसरण (ऋत बद्धकाल) कहा जाता है।
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