________________
बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक
६४ ************************* ***************************** ***
जिस स्थान विशेष पर साधु-साध्वी चातुर्मास करते हैं, उस स्थान पर आने के पश्चात् संपूर्ण चातुर्मास काल में गृहस्थों से वस्त्र लेना नहीं कल्पता। वस्त्र के उपलक्षण से धागा, फीता, रूई, वस्त्र की पट्टी (बेन्डेज) आदि भी लेना कल्पनीय नहीं गिना जाता है। डायरी या पुस्तक को सीने में प्रयुक्त धागा तथा पुढे आदि पर चिपकाया हुआ वस्त्र का अंश हो तो उसे अकल्पनीय नहीं समझा जाता है।
परन्तु द्वितीय समवसरण में आवश्यकतानुसार वस्त्र लेना शास्त्रानुमोदित है।
दीक्षा पर्याय के ज्येष्ठत्व के अनुक्रम से वस्त्र लेने का विधान कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहाराइणियाए चेलाई पडिगाहित्तए॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - अहाराइणियाए - यथारत्नाधिक - दीक्षाज्येष्ठ क्रम।
भावार्थ - १६. साधु-साध्वियों को दीक्षापर्याय के ज्येष्ठत्व के अनुसार वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है।
विवेचन - यहाँ प्रयुक्त रत्नाधिक शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। संयम वह रत्न है, जिसकी उज्ज्वलता एवं चमक बढाने हेतु साधु-साध्वी यावज्जीवन प्रतिबद्ध एवं उद्यत रहते हैं।
जो दीक्षा में ज्येष्ठ हो उसे दीक्षाज्येष्ठ या रत्नाधिक कहते हैं। अत: उपस्थित साधुसाध्वियों में जिन-जिनका दीक्षा पर्याय अधिक हो, उन्हें क्रमशः अवरोही क्रम से वस्त्र, पात्र आदि देना कल्पता है। इस प्रकार अधिक से न्यून की ओर उपधि स्वीकार करना कल्पता है।
क्रम-व्यवच्छेदं या व्युत्क्रम करने वाले साधु-साध्वियों के लिए भाष्यकार ने प्रायश्चित्त का विधान किया है। क्योंकि जिनका संयम पर्याय अधिक है, वे कम संयम पर्याय वाले साधु-साध्वियों के लिए निश्चय ही वंदनीय एवं सत्करणीय हैं। अत: यह उनके प्रति एक प्रकार से सम्मान का सूचक है। अत: उनका अविनय, आशातना न हो, तदर्थ यह व्यवस्था दी गई है।
शय्या-संस्तारक-ग्रहण का विधान कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहाराइणियाए सेज्जासंथारयं पडिगाहित्तए ॥१७॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org