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बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक
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भाष्यकार ने इस संदर्भ में उल्लेख किया है कि साधु को अर्श, भगन्दर आदि रोग हो जाए तो अन्य वस्त्रों को अस्वच्छ होने से बचाने के लिए इनका प्रयोग विहित है।
• इस प्रकार भाष्यकार ने इस सूत्र के भाष्य में साध्वियों के लिए २५ प्रकार की उपधि रखने तथा अन्य ध्यातव्य तथ्यों का विस्तार से विवेचन किया है, जो जिज्ञासु एवं अनुसंधित्सुजनों के लिए बृहत्कल्प भाष्य से ज्ञातव्य है।
साध्वी को बिना आज्ञा वस्त्र-ग्रहण-निषेध णिग्गंथीए य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविट्ठाए चेलढे समुप्पजेजा, णो से कप्पइ अप्पणो णीसाए चेलं पडिगाहित्तए; कप्पड़ से पवत्तिणीणीसाए चेलं पडिगाहित्तए णो से तत्थ पवत्तिणी सामाणा सिया, जे तत्थ सामाणे आयरिए वा उवज्झाए वा पवित्ती वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणावच्छेइए वा जं चऽण्णं पुरओ कट्ट विहरइ, कप्पइ से तण्णीसाए चेलं पडिगाहित्तए॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - पिण्डवायपडियाए - पिण्डवातप्रतिज्ञया - आहार प्राप्त करने की इच्छा से, अणुप्पविट्ठाए - अनुप्रविष्ट हुई, चेलट्टे - वस्त्र ग्रहण का प्रयोजन, समुप्पज्जेज्जासमुत्पन्न हो, तण्णीसाए - उनकी निश्रा से।
भावार्थ - १२. गाथापति कुल - गृहस्थ के घर में आहार की इच्छा से प्रविष्ट हुई साध्वी के समक्ष यदि वस्त्रग्रहण का प्रसंग उपस्थित हो (कोई वस्त्र ग्रहण की याचना करे) तो (साध्वी को) अपनी निश्रा से - स्वायत्ततापूर्वक वस्त्र ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
(वरन्) प्रवर्तिनी की निश्रा से उसे वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है।
यदि वहाँ प्रवर्तिनी नहीं हो तो जो आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर अथवा गणावच्छेदक हो अथवा अन्य जिस किसी के सान्निध्य (प्रमुखता) में विचरण कर रही हो, उनकी निश्रा से वस्त्रग्रहण करना कल्पता है। _ विवेचन - प्रथम उद्देशक के सूत्र ४०, ४१ में इस विषय में पूर्व में विस्तार से चर्चा आई है। वहाँ भी साध्वियों को 'साकारकृत' वस्त्र लेना कल्पनीय कहा है। यह उसी सूत्र का और स्पष्टीकरण मात्र है।
सूत्र में प्रयुक्त आचार्य, उपाध्याय, गणी आदि शब्द नेतृत्व प्रधान हैं तथा अपने आप में विशिष्ट अर्थों के द्योतक हैं, यथा -
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