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तड़ओ उद्देसओ - तृतीय उद्देशक
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को एक-दूसरे के उपाश्रय में अकरणीय क्रियाएँ
tarai णिग्गंथीणं उवस्सयंसि चिट्ठित्तए वा णिसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा णिद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिट्ठवित्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए ॥ १ ॥
णो कप्पड़ णिग्गंथीणं णिग्गंथउवस्सयंसि चिट्ठित्तए वा जाव ठाइत्तए ॥ २ ॥ भावार्थ - १. निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थिनियों के उपाश्रय में खड़े रहना, बैठना, लेटना या पार्श्व परिर्वन करना (त्वग्वर्त्तयितुं ), निद्रा लेना, प्रचला संज्ञक निद्रा लेना ऊंघना, अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार ग्रहण करना, मल, मूत्र, कफ और सिंघान नासा मैल परठना ( परिस्थापित करना), स्वाध्याय करना, ध्यान करना या कायोत्सर्ग कर स्थित रहना नहीं कल्पता है।
२. (इसी प्रकार) निर्ग्रन्थिनियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में खड़े रहना यावत् (कायोत्सर्ग कर) स्थित रहना नहीं कल्पता है ।
विवेचन - यहाँ साधुओं को साध्वियों के तथा साध्वियों को साधुओं के उपाश्रय में जाने का या उपरोक्त क्रियाएँ न करने का जो निषेध किया गया है, उसका हार्द एक दूसरे के संयम जीवितव्य की रक्षा करना है। इसके अलावा यदि एक दूसरे के उपाश्रय में साधु-साध्वी अधिक समय रुकते हैं तो निकटवर्ती लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शंकाएं उपस्थित होना आशंकित है, जो साधना के उज्ज्वल, धवल, निर्मल चरित्र पर दाग के समान होती है।
अत्यावश्यक कार्य हो तो साधुओं को साध्वियों के उपाश्रय में अल्प समय के लिए ही जाना कल्पता है । वहाँ भी खड़े-खड़े ही आवश्यक वार्तालाप कर पुनः लौटना शास्त्रानुमोदित है।
परस्पर वाचना सुनने, साधुओं को स्वाध्याय सुनाने तथा सेवा आदि कार्यों हेतु एक दूसरे के उपाश्रय में जाने का व्यवहार सूत्र में तथा ठाणांग सूत्र में उल्लेख आया है।
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