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पञ्चविध रजोहरण की कल्पनीयता
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भावार्थ २५. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को ये पाँच प्रकार के वस्त्र अपनी नेश्राय में रखना और धारण करना कल्पता है। १. जांगिक २. भांगिक ३. सानकं ४ पोतक तथा ५. तिरीटपट्टक ।
विवेचन - उपर्युक्त सूत्र में साधु-साध्वियों के लिए जिन पाँच प्रकार के वस्त्रों को धारण करने का विधान किया गया है, उनका वर्णन निम्नांकित रूप में ज्ञातव्य है
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१. जांगमिक - भेड़ आदि के बालों से बने वस्त्र ।
२. भांगिक - अलसी आदि की छाल से निर्मित |
३. सानक- सन (जूट) आदि से बने हुए वस्त्र |
४. पोतक - कपास से बने वस्त्र ।
५. तिरीटपट्टक - तिरीट (तिमिर) वृक्ष की छाल से बने वस्त्र ।
प्रथम प्रकार के वस्त्रों में प्रयुक्त जंगम शब्द का तात्पर्य त्रस जीवों से है। ये दो प्रकार के होते हैं - विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
कोशा, रेशा, मखमल आदि वस्त्र विकलेन्द्रिय प्राणियों के घात से बनाए जाते हैं । अतः ये साधु-साध्वियों के लिए अकल्पनीय होते हैं। कुछ रेशम के कीड़े परिपक्व हो जाने के बाद अपने ऊपर के रेशे को तोड़ कर बाहर निकल जाते हैं। उन टूटे हुए रेशे से जो वस्त्र बनाया जाता है। क्षेत्र काल में अन्य वस्त्र उपलब्ध नहीं होने पर उस वस्त्र को लेना कल्पनीय माना गया है । परन्तु पंचेन्द्रियों के बालों से निर्मित वस्त्र साधु-साध्वी धारण कर सकते हैं। क्योंकि बाल काटने से भेड़ आदि पीड़ा का अनुभव नहीं करते वरन् हल्कापन ही महसूस करते हैं।
जो भिक्षु तरूण एवं स्वस्थ हो, उसे उपरोक्त में से एक ही जाति के वस्त्र रखने चाहिए। साधारणतः दो सूती और एक ऊनी वस्त्र का साधु-साध्वियों के लिए विधान किया गया है।
पञ्चविध रजोहरण की कल्पनीयता
कप्पणिग्गंथा वाणिग्गंथीण वा इमाई पंच रयहरणाइं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा, तंजा - उणिए उट्टिए साणए वच्चाचिप्पए मुंजचिप्पए णामं पंचमे ।। २६ ॥ त्ति बेमि ॥ बहक्कप्पे बिइओ उद्देसओ समत्तो ॥ २ ॥
| कठिन शब्दार्थ - रयहरणाई रजोहरण ।
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