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बृहत्कल्प सूत्र - द्वितीय उद्देशक
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२४. सागारिक द्वारा अपने पूज्यजनों के सम्मान में प्रस्तुत, समर्पित भोजन, जो उसके थाली आदि उपकरणों में रखा हुआ हो, अप्रातिहारिक हो, उसमें से न सागारिक दे और न उसके परिजन ही दें वरन् स्वयं पूज्यजन देवें तो (साधु को) लेना कल्पता है। . . .. ..
विवेचन - इस सूत्र में शय्यातर द्वारा अपने सम्माननीय जन - लौकिक शिक्षक, कलाचार्य, प्रौढ पारिवारिकजन इत्यादि के सम्मान में दिया गया, उनके लिए प्रेषित किया गया भोजन पूज्यभक्त कहा गया है। उस भोजन को भेजने के दो प्रकार हैं। प्रथम - ऐसा संकल्पित रहता है कि पूज्यजनों के भोजन ग्रहण के पश्चात् शेष शय्यातर के यहाँ पुनः लाया जाता है। द्वितीय - भोजन पूज्यजनों को सर्वथा समर्पित होता है। भोजन के पश्चात् अवशिष्ट अंश लौटाया नहीं जाता। प्रथम प्रातिहारिक तथा द्वितीय अप्रातिहारिक कहा जाता है। ... 'प्रति' उपसर्ग पूर्वक 'ह' धातु से प्रतिहार तथा तद्धित प्रक्रिया से प्रातिहारिक बनता है
जो आहार रूप विशेष्य का विशेषण है। ___जो वस्तु देकर वापस लौटायी जाती है, उसे 'प्रातिहारिक' तथा पुन: नहीं लौटायी
जाती, वह 'अप्रातिहारिक' कहलाती है। साधुचर्या के लिए ऐसा स्वीकृत है कि दिन में · उपयोग हेतु साधु-साध्वी सूई, कैंची आदि लेते हैं, शाम को वापस लौटा देते हैं। गृहस्थों के यहाँ से दिया जाने वाला भोजन अप्रातिहारिक होता है।
साधु द्वारा लिए जाने वाले आहार में शय्यातर का किसी भी प्रकार का संबंध, जुड़ाव न हो, यह शास्त्रानुमोदित है। अत एव इस सूत्र में उसके संबंध या जुड़ाव से रहित स्थिति में भिक्षा लेने का विधान किया गया है, जो विशुद्ध आहारचर्या का समीचीन रूप है।
यहाँ विशेष रूप से ज्ञातव्य है, शय्यातर स्वयं एवं उसके परिजनवृन्द द्वारा दिए जाने वाले आहार का जो निषेध किया गया है, वहाँ उसकी विवाहित पुत्रियों का समावेश नहीं होता क्योंकि विवाह के पश्चात् लड़कियों का संबंध पितृगृह के स्थान पर श्वसुरगृह से हो जाता है। अतः साधु द्वारा उनके हाथ से अप्रातिहारिक आहार लेने में दोष नहीं है।
वस्त्रकल्प ... कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाइं पंच वत्थाई धारेत्तए वा परिहरित्तए वा, तंजहा-जंगिए भंगिए साणए पोत्तए तिरीडपट्टे णामं पंचमे॥२५॥
कठिन शब्दार्थ - इमाइं - ये, वत्थाई - वस्त्र, धारेत्तए - अपने पास रखना, परिहरित्तए - उपभोग करना - पहनना।
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