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बृहत्कल्प सूत्र - द्वितीय उद्देशक ******************** ****** *************************** करभिउत्ताणि वा पिहियाणि वा लंछियाणि वा मुहियाणि वा कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा वासावासं वत्थए॥१०॥ . कठिन शब्दार्थ - पिण्डए - पिण्ड रूप खाद्य पदार्थ (मोदक आदि), लोयए - दूध निष्पन्न मावा, पनीर आदि, णवणीए - नवनीत - मक्खन, सप्पिं - घी, फाणिए - गुड़ आदि का तरलीकृत रूप, पूवे- मालपुआ, सक्कुली-शष्कुली - पूड़ी, सिहरिणी- श्रीखण्ड।
भावार्थ - ८. उपाश्रय के भीतर - प्रांगण में यदि मोदक आदि पिण्ड रूप पदार्थ, मावा, दूध, दही, नवनीत, घी, तेल, गुड़ का तरलीकृत रूप, मालपुआ, पूड़ी या श्रीखण्ड आदि रखे हुए हों, इधर-उधर रखे हों, बिखेरे हुए हों, इधर-उधर (अत्यंत अव्यवस्थापूर्वक) बिखेरे हुए हों तो वहाँ साधु-साध्वियों को क्षणमात्र भी रहना नहीं कल्पता है। ..
९. पुनश्च) यदि (वे) यह जानें कि (पूर्वोक्त खाद्य पदार्थ) उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण और विप्रकीर्ण नहीं है वरन् राशिकृत, पुंजीकृत, भित्तिकृत, कुड्यकृत, लांछित, मुद्रित या ढके हुए हैं तो साधु-साध्वियों को हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में वहाँ रहना कल्पता है। '..
१०. यदि (वे) यह जानें कि (पूर्वोक्त पदार्थ) ये राशिकृत, पुंजीकृत, भित्तिकृत, कुड्यकृत आदि नहीं है वरन् कोठे या पल्य में भरे हुए हैं, मचान .पर या माले पर सुरक्षित हैं या मृत्तिका, गोबर आदि से लिप्त, प्रलिप्त हैं, कुम्भी या बोधि में रखे हुए हैं, ढके हुए या लांछित, मुद्रित हैं तो साधु या साध्वियों को वहाँ वर्षावास में रहना कल्पता है। . विवेचन - जीवन में जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय संबंधी भोग इस प्रकार के हैं, जिन्हें जीत पाना बहुत कठिन है।
यदि उपाश्रय में उपर्युक्त खाद्य पदार्थ हों तो कदाचन रसंलोलुपता के कारण उन्हें खाने की मनोवृत्ति उत्पन्न हो सकती है। यद्यपि साधु आत्मसंयत होते हैं। सामान्यतः खाद्यादि पदार्थों के समीप रहते हुए भी उनका मन नहीं ललचाता किन्तु कुछेक, जिनकी मनः शक्ति दृढ़ नहीं होती, उन्हें वहाँ खतरा अवश्य है।
व्याख्याकारों ने खाद्य पदार्थयुक्त उपाश्रय में ठहरने में निम्नांकित दो हेतु आशंकित माने हैं - १. खाद्य पदार्थ जिस मकान में हों, उसमें चींटियों का विस्तार हो सकता है। २. चूहे, बिल्ली आदि प्राणी भी उस ओर अधिक आकृष्ट होते हैं। ३. अन्य प्राणी आकर उन्हें खा सकते हैं, जिन्हें रोकने से साधुओं को अन्तराय लगता
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